अपि सर्वनदीतोयैर्म्रत्कूटैश्चाप्यगोपमै:।।
आपातमाचरेच्छौचं भावदुष्टो न शुद्धिभाक्।...(स्कन्दपुराण, ब्रह्म० धर्मा० ५/४६-४७)
आपातमाचरेच्छौचं भावदुष्टो न शुद्धिभाक्।...(स्कन्दपुराण, ब्रह्म० धर्मा० ५/४६-४७)
भावार्थ- यदि सम्पूर्ण नदियोंके जलसे तथा पर्वतके समान मिट्टीसे कोई मरणपर्यंत बह्यशुद्धि करे तो भी जिसका भाव शुद्ध नहीं है, वह शुद्ध नहीं हो सकता।
मृत्तिकानां सहस्त्रेण चोदकुुंम्भशतेन च।
न शुद्धयन्ति दुरात्मानो येषां भावो न निर्मल: ।। (दक्ष स्मृति ५/११)
भावार्थ-- जिसका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, वह दुष्टात्मा मनुष्य हजार बार मिट्टी लगानेपर और सौ घड़े जलसे धोनेपर भी शुद्ध नहीं होता।
तात्पर्य मेरी समझ में यही है की जितनी बाहरी शुद्धि का निर्देश हमारे पुराणों में किया है, वो सब हमारे अन्तःकरण शुद्धि करने में सहायक है ।
जैसे शारीरिक शुद्धि , अन्न शुद्धि, जल शुद्धि , वस्त्र शुद्धि तथा आचरण शुद्धि ये सब निभाना अन्तःकरण की शुद्धि में अति सहायक है।
जैसे गुरूजी के द्वारा शिष्य को दीक्षा का पात्र बनाने में क्रिया करानी पड़ती है - यम, नियम, आसन इत्यादि ये वो साधन है जिससे खाद- मिट्टी और उपजाऊ पृथ्वी का रूप कीया जाता है , तभी मन्त्र रूपी बीज कान के द्वारा बोना , तभी बीज रूपी मंत्र
वृक्ष बनता है , तत्पश्चात् फल देता है । वरना ऊसर जगह में बीज बोना निष्फल होता है।
बाह्य शुद्धि भी बहुत जरुरी है । अगर जरुरी न होता , तो हजारों श्लोक ऋषियों द्वारा ग्रन्थो में न लिखे जाते।
बाह्य शुद्धि भी बहुत जरुरी है । अगर जरुरी न होता , तो हजारों श्लोक ऋषियों द्वारा ग्रन्थो में न लिखे जाते।
जो बाह्य शौच का निर्वाह करता है , उस पर गुरु के द्वारा , इष्ट के द्वारा कृपा करना शीघ्र संभव है , क्योकि उपासना के लिए आवश्यक है , जिस देव की उपासना कर रहे है , अपने शरीर-मन को देव तुल्य बनाना पड़ता है ।
(व्रत करना - इसी का एक अंग है , देव तुल्य बनने का - विस्तार भय से फिर कभी)
" आचार- विचार " हमारे लिए जो हमारी जाति , वर्ण, कुल के आधार पर निर्देशित है वह हमें निभाने ही चाहिए। इसी लिए ऋषियो ने उन्हें हमारा धर्म कह दिया ।( धर्म में समाहित कर दिया है)
आजकल के लोगो को कहना बहुत सरल हो गया है , की हमारी मज़बूरी है, पैसा कमाना है, गृहस्थ जीवन यापन करना है , तो ये सब " आचार-विचार" को अनदेखा तो करना पडेगा !!!! ......
या तो हमें विश्वाश नहीं , उस " विशम्भर " पर - जिसके उदहारण सुबह से शाम तक यहाँ हम देते रहते है।
या तो हमें विश्वाश नहीं , उस " विशम्भर " पर - जिसके उदहारण सुबह से शाम तक यहाँ हम देते रहते है।
( गीता जी के - योग क्षेम बहाम्यम्... ) अगर ये कहो तो कहेंगे .. कर्मण्ये वाधिका...... ये तर्क प्रस्तुत करदेने में देरी नहीं लगती।)
जब पैसा ही कमाना है श्री महालक्ष्मी जी की कृपा लानी है तो एक वचन श्री महालक्ष्मी जी का याद आ रहा है , वे स्वयं कह रही है कर्म के बारे में , और साथ ही कहती है में उस पर प्रसन्न रहती हूँ। तो उनके वचन पर विश्वाश किया जाये , उसके लिए मन में बहुत द्रढता लानी होगी ।
श्री: -
उपायांश्चतुर: शक्र श्रणु मत्प्रीति वर्धनान्।
यैरहं परमां प्रीतिं यास्याम्यनपगामिनीम् ।।
उपायांश्चतुर: शक्र श्रणु मत्प्रीति वर्धनान्।
यैरहं परमां प्रीतिं यास्याम्यनपगामिनीम् ।।
श्री लक्ष्मी जी ने कहा - हे इंद्र ! मेरी प्रीति को बढ़ाने वाले जो चार उपाय है उन्हें आप सुनिये। इन उपायों से मैं अधिक प्रसन्न होती हूँ और उपाय करने वाले को छोड़कर मैं अन्यत्र नहीं जाती।।१६।।
अब चार उपाय क्या ?
स्वजातिविहितं कर्म सांख्यं योगस्तथैव च।
सर्वत्यागश्च विद्वदिभरूपाया: कथिता इमे।।
सर्वत्यागश्च विद्वदिभरूपाया: कथिता इमे।।
( लक्ष्मीतन्त्रम् पंचदशोsध्याय: १६-१७)
( कर्मख्य उपाय में वैदिक कर्म 3 प्रकार के होते है ।)
उपरोक्त वचन पर विश्वास रखे तो , अब महालक्ष्मी का सोचना है आगे ।
देखा जाये तो सारा दारोमदार शौच पर निर्भर है , प्रयत्न करके , येनकेन प्रकारेण निभाना ही चाहिए ।
मानस में गोस्वामी जी कहते है -
धीरज "धर्म" मित्र अरु नारी ।.....
साभार
आनन्द चतुर्वेदी ( नन्दा)
देखा जाये तो सारा दारोमदार शौच पर निर्भर है , प्रयत्न करके , येनकेन प्रकारेण निभाना ही चाहिए ।
मानस में गोस्वामी जी कहते है -
धीरज "धर्म" मित्र अरु नारी ।.....
साभार
आनन्द चतुर्वेदी ( नन्दा)
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Harshit chaturvedi