श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास
इतिहास का स्वरूप
भारतवर्ष विश्व का सबसे प्राचीन देश है। भारतवर्ष की सीमा वेदों, पुराणों के अनुसार ब्रह्मषि देश में सन्निहित है। ब्रह्मर्षि देश का सर्व पुरातन विश्व वन्दित सूरसेन देश, ब्रजमंडल या मथुरा मण्डल है। मथुरापुरी विश्व की सबसे प्राचीन आदिपुरी है, तथा प्रमथक्षेत्र मथुरा को स्थापित करने का श्रेय माथुर ब्राह्मणों को है। अग्नि का उत्पादन अग्नि मन्थन की विद्या मानव सभ्यता की सबसे पहली कड़ी है।वे माथुर ही थे जिन्होंने मानव के वन्य जीवन को अरणी मंथन के द्वारा अग्नि उत्पादन का महान आविष्कार किया। वेदों में अग्नि, सोम, इन्द्र के सर्वाधिक मंत्र हैं। अग्निदेव ही मानव का आदि पूर्वज ब्राह्मण माथुर संज्ञक था। माथुरों की इस उत्पत्ति के सम्बन्ध में हम माथुर हितैषी में पर्याप्त प्रकाश डाल चुके है। माथुरों ने ही मथुरा की स्थापना की, अनेक कल्प पूर्व से माथुरों का इतिहास क्रम वेदादि शास्त्रों में वर्णित है। युग युगों मैं माथुरों की विप्र श्रेष्ठता का सन्मान प्रतिष्ठित रहा है।
माथुरों के सम्बन्ध में मिथ्या शंकायें और कुतर्कवाद
महर्षि वेदव्यास श्री कृष्णकाल और बुद्ध काल तक माथुरों के विषय में शंकायें नहीं उठायी गई। बुद्ध के बाद भी आचार्यों एवं राजा महाराजाओं द्वारा माथुरों का पूर्ण सम्मान होता रहा, किन्तु उसके बाद भारत का अनेक छोटे क्षेत्रों में विभाजन हो जाने के कारण बाह्मण कहे जाने वाले ब्रह्मकर्म विरत अनेक लोग कान्य कुब्ज, गौड़, सारस्वत, मैथिल, महाराष्ट्र, द्रविड़[1], गुर्जर[2] आदि अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों के अनुसार अपनी जाति का अलग-अलग समूह बनाकर एक ब्राह्मणत्व के स्थान पर क्षेत्रीयता के अहंकार में डूब गये। उन्होंने अपने गोत्रकर्ता ऋषियों, वंशप्रमुख महर्षियों आदि के गर्व को भुलाकर इन क्षेत्रों के राजाओं की अनुकृति में अपना नया रूप बना लिया। इनमें से एक गुट ने पाँच ब्राह्मणों का उत्तरीय गुट तथा पाँच ब्राह्मणों का दक्षिणी गुट कल्पित कर दस ब्राह्मण समूह की दुर्बल कल्पना की। उत्तर दक्षिण का वह विष फैलाने कला संगठन सम्भवत:महमूद ग़ज़नवी और चौहान[3] सम्राट पृथ्वीराज तथा उसके मौसेरे भाई जयचन्द्र के समय खड़ा किया गया। पृथ्वीराज और जयचंद्र का आपसी विरोध इतिहास प्रसिद्ध है।
परम्परा से यह ज्ञात होता है कि जब जयचन्द्र ने कान्यकुब्जों के प्रबन्ध में राजसूय यज्ञ किया, और उस यज्ञ में अन्य ब्राह्मणों के साथ माथुर और मागध ब्राह्मण भी गये। कान्यकुब्ज के ब्राह्मणों ने माथुरों का सम्मान किया किन्तु यह सत्कार कुछ कुटिल और कलहप्रिय विद्रोही लोगों को नहीं सुहाया उन्होंने माथुर और कान्यकुब्जों में भेद डालने के लिये एक द्वैषपरक मिथ्याकल्पित श्लोकार्ध की रचना कर डाली और उसे ब्रह्ममंडली में प्रस्तुत किया। माथुरों ने तभी इस श्लोकार्ध की पूर्ति कर दी
यह कलह छन्द किसी ब्राह्मण को उस समय भी हितकर नहीं जमा और दुभवि का सूत्रपात होने पर माथुरों ने समझा कि यह यज्ञ माथुरों के त्याग से संयोगिता हरण में भंग हुआ और दूसरे ही वर्ष मुहम्मद ग़ोरी नेकन्नौज को ध्वस्त कर दिया। कान्यकुब्जों ने बतलाया कि वे इस अधम श्लोक से सहमत नहीं है। कान्यकुब्ज शिष्टजन आज भी माथुर ब्राह्मणों की पूर्ण श्रद्धा भक्ति से सेवासम्मान करते हैं। उनके अनेक सम्मान सूचक हस्तलेख माथुरों की बहियों में हैं तथा यह मिथ्या प्रपंची पद्य अब प्राय: त्याज्य सिद्ध हो चुका है। यह आश्चर्य है कि माथुरों के सम्मान से दग्ध विद्वैषीजन अभी भी अपनी सर्प जिह्वा से इस विषवाद को वमन करते ही रहते हैं।
सर्वेद्विजा कान्यकुब्जा माथुर मागधंबिना ।
प्रायश्चित प्रकुर्वन्तु बौद्व धर्मेंण दूषिता: ।।
यह कलह छन्द किसी ब्राह्मण को उस समय भी हितकर नहीं जमा और दुभवि का सूत्रपात होने पर माथुरों ने समझा कि यह यज्ञ माथुरों के त्याग से संयोगिता हरण में भंग हुआ और दूसरे ही वर्ष मुहम्मद ग़ोरी नेकन्नौज को ध्वस्त कर दिया। कान्यकुब्जों ने बतलाया कि वे इस अधम श्लोक से सहमत नहीं है। कान्यकुब्ज शिष्टजन आज भी माथुर ब्राह्मणों की पूर्ण श्रद्धा भक्ति से सेवासम्मान करते हैं। उनके अनेक सम्मान सूचक हस्तलेख माथुरों की बहियों में हैं तथा यह मिथ्या प्रपंची पद्य अब प्राय: त्याज्य सिद्ध हो चुका है। यह आश्चर्य है कि माथुरों के सम्मान से दग्ध विद्वैषीजन अभी भी अपनी सर्प जिह्वा से इस विषवाद को वमन करते ही रहते हैं।
प्रेत यज्ञ का विष
माथुर ब्राह्मणों को मिथ्या लांछन से युक्त करने के दूसरा प्रयास सम्वत् 1685 वि. में हुआ। इस समय खन्ड के ओरछा राज्य[4] में राजा इन्द्रजीत सिंह बुन्देले का राज्य था। राजा पू्र्ण विलासी था उसके यहाँ रायप्रवीण नाम की एक अति सुन्दर काव्य संगीत कुशल एक वेश्या थी। राजा के दरबार में राजा की रूचि के अनुसार नाच गान और भोग विलास, सुरा सुन्दरी के भक्तों की एक निजी अंतरंग महफिल थी।इस गोष्ठी में विलास आसक्त प्रसिद्व कवि केशवराय भी थे। रसिकप्रिया कविप्रिया के काव्य माध्यमों से वे अपनी प्रिय राय प्रवीण का माल बढ़ाया करते थे। इस विलासी मंडली की दीर्धजीवन देने के लिये तान्त्रिकों के मतानुसार राजा ने प्रेत यज्ञ करके सारी मंडली सहित प्रेतक्षोनि प्राप्त कर चिरकार तक सुखोपभोग करने का आयोजन किया।
दिन में प्रेतराज कालरूद्र की अर्चना हवनादि होता था, और रात्रि में सुरा सुन्दरी की आनन्द साधना के तान्त्रिक प्रयोग होते थे। यज्ञ में अनेक स्थलों के ब्राह्मण आमन्त्रित किये गये। इनमें मथुरा से माथुर मागध, गुजरात के कापट (कापडिया) कटकपुरी के कीकट (उड़िया) और कन्नौज के कान्य कुब्ज भी पहुँचे। ये 5 ब्राह्मण अपने स्थान पर सहज स्वभाव से ही राजा के इस प्रयास की कुछ कटु आलोचना कर रहे थे, जिसे राजा के किसी कर्मचारी ने सुन लिया और इसकी ख़बर कवि केशव को पहुँचा दी। केशव कवि सनाढ़य थे। माथुरों और उनके साथी मागधों से उनका स्वाभाविक विद्वेष था। उन्होंने एक श्लोक रचा
दूसरे दिन जब ये पाँचों ब्राह्मण यज्ञ में पहुँचे तो उन्हें देखते ही केशव कवि आग बबूला हो गये और राजा के समक्ष गर्जना करके उक्त श्लोक पढ़ा। स्पष्ट हैं कि ये पाँच ब्राह्मण विद्या पारंगत थे, तभी इन्हें बृहस्पति समा यदि कहा गया था। ब्राह्मण यह परिस्थिति देख तत्काल यज्ञ मंडप से बाहर हो गये और अपने घेरों को लौट पड़े। मजे की बात यह रही कि इस पंचक समूह में अब की कान्यकुब्ज शामिल थे, और उन्हें भी यह प्रसाद चखने का मौका आया और सर्वें द्विजा कान्यकुब्जा की गर्वोंक्ति चूर चूर हो गई।
माथुरों मागधश्चैव कापटौ कीट कानजी ।
पंचविप्रा न पूजयन्ते वृहस्पति समा यदि ।।
दूसरे दिन जब ये पाँचों ब्राह्मण यज्ञ में पहुँचे तो उन्हें देखते ही केशव कवि आग बबूला हो गये और राजा के समक्ष गर्जना करके उक्त श्लोक पढ़ा। स्पष्ट हैं कि ये पाँच ब्राह्मण विद्या पारंगत थे, तभी इन्हें बृहस्पति समा यदि कहा गया था। ब्राह्मण यह परिस्थिति देख तत्काल यज्ञ मंडप से बाहर हो गये और अपने घेरों को लौट पड़े। मजे की बात यह रही कि इस पंचक समूह में अब की कान्यकुब्ज शामिल थे, और उन्हें भी यह प्रसाद चखने का मौका आया और सर्वें द्विजा कान्यकुब्जा की गर्वोंक्ति चूर चूर हो गई।
केशव की इस रचना पर विवाद खड़ा हुआ तथा ग्रन्थ प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रश्न आने पर उन्होंने इसे अत्रिसंहिता के श्लोको में प्रविष्ट कर दिया। यह एक दम जाली काम था तथा यह इस बात से स्पष्ट हो गया किमहर्षि अत्रि सत युग के ब्रह्मा के 10 पुत्रों में से थे तथा उनका आखिरी अस्तित्व चित्रकूट में सीता अनुसूया संवाद के समय तक अस्तित्व में था। श्लोक में केवल पाँच ब्राह्मण जो यज्ञ में आये उनकी बात है समस्त उनकी गौड़, कान्यकुब्ज कापट और कीकटों की जातियों का अस्तित्व बुद्व के काल तक भी नहीं था। बुद्व के 16 जनपदों में इनका कहीं नामनिशान भी नहीं है। अत: यह अत्रि वाक्य नहीं हो सकता।
माथुर मागध आदि यहाँ एक वचन में हैं। ये लधु जनपद मुहम्मद ग़ोरी के आक्रमण के कुछ पूर्व ही राजसत्ताओं का विघटन होने और राजपुत्रों के अलग अलग खंड राज्य स्थापित कर लेने के कारण प्रगट हुए। इससे भारत[5] की प्रबल शक्ति टूटी और उसका लाभ उठाकर विदेशी आक्रान्ता विजय पाने के सफल हो गये। विघटनवाद का यह विष ब्राह्मणों और क्षत्रियों राजाओं में भी फैला और ये ‘मैं बड़ा मैं बड़ा’ की भावना से देश भी दासता के हेतु बने।
इतिहास रचना के पूर्व प्रयास
श्री माधुर चतुर्वेद ब्राह्मणों में अपने इतिहास के प्रति जागरूक प्रयत्नों को सुगठित करने और अपने इतिहास को प्रकाशित करने के सम्बन्ध में उदासीनता का भाव सदा से रहा है। यद्यपि इस जाति का व्यक्तिगत अहंभाव इतना प्रबल है कि कोई साधरण सा व्यक्ति भी अपने स्वयं को ब्रह्मा और सर्वेज्ञ नारायण से कम नहीं समझता फिर भी ऐतिहासिक सामग्री को संकलित करने में यहाँ के विद्वानों की नैराश्य वृत्ति उल्लेखनीय है। “चित्रा मधुपुरी यत्र अनधी यैव पंडिता:” की इस भूमि में इतने पर भी कुछ आत्मगौरवाभिमानी महानुभावों ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से माथुर इतिहास की सहायता पहुँचाने वाले साहित्य का लघु पुस्तिकाओं के रूप में यथा समय संकलन प्रकाशन किया है। यहाँ हम उनका संक्षेप में परिचय दे रहे हैं।सरकार का भ्रम निराकरण
माथुर मान मन्जरी : 1930 विक्रमी रचनाकार श्री छंगालालजी मिहारी छगन मगन। मथुरा माथुरों के एतिहासिक महत्व को प्रगट करने वाली यह सम्भवत: सबसे पहली रचना है। इससे पूर्व की कोई रचना हमारे देखने में नहीं आई हैं। इनकी लिखी ‘ब्रज मथुरा इतिहास’ नाम की प्राचीन पुस्तक हमारे संग्रह में है। माथुर मान मंजरी जो इस रचना का पहिले का खन्ड था। यह प्रकाशित नहीं है।माथुर चन्द्रोदय : 1958 वि. इसकी रचना तथा प्रकाशन का कार्य श्रीगुरु महाराज 108 वासुदेव जी एवं श्रीगुरु महाराज 108 श्रीरज्जू जी की अनुमति से ‘माथुर मंडली’ मथुरा द्वारा हुआ है। विश्वकर्मा यंत्रालय द्वारा मुद्रित यह पुस्तिका माथुरों को अमूल्य वितरित की गई थी। इसकी रचना की एक बड़ी रोचक प्रस्तुति है। इसमें “मसौदा” नाम के शीर्षक में प्रगट किया गया है कि चौबे रामदास जी साहब मुनीम सेठ जी मथुरा वालों के पास पश्चिमोत्तर देश अवध की छपी हुई चिट्ठी नम्बरी 524 मुवर्रक 25 फरवरी 1901 ई. वमुकाम इलाहाबाद से पहुँची कि जिसके तितम्मा में इन्द्राज इस तरह था।
समूह ब्राह्मण और उसे मिलती हुई जातै।
ब्राह्मण ख़ास पंचगौड़ यानो सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, उत्कल, मैथिल)।
भुईहार- बिहार के ब्राह्मणों के मुताबिक पूर्वी ज़िलों में ख़ास कर पाये जाते हैं। श्री महाराज बनारस इस अजलाय में शिरोमणि हैं।
दीगर ब्राह्मण − यानी माथुर चौबे जुझौतिया, कश्मीरी वगैरह इत्यादि।
अग्रेज सरकार के इस राजकीय प्रपत्र को पाकर चौबे रामदास जी ने महाराज श्री वासुदेवजी से उसका आशय प्रगट किया। उन्होंने श्री रज्जूजी महाराज से सम्मति मिलाकर उसे समस्त माथुर चतुर्वेदियों में प्रगट कराया। 29 अप्रैल 1901 ई. को श्री शीलचन्द्र जी महाराज के बगीचा में समस्त समाज के प्रमुख पुरूषों की सभा एकत्र हुई। ‘माथुर चतुर्वेदी’ मण्डली को यह अधिकार दिया गया कि वह इस सम्बन्ध में प्रमाण एकत्र करें। माथुर ब्राह्मणों को प्रथम कोटि के ब्राह्मणों में स्थान दिलाये जाने हेतु प्रयत्न करे।
‘माथुर मण्डली’ के प्रयासों से समस्त संग्रहीत शास्त्रीय प्रमाणों को छापकर मथुरा के ज्याइन्ट मजिस्ट्रेट बहादुर मिस्टर बी. जे. दलाल को दिया गया, तथा यह घोषित किया गया, कि इनके अतिरिक्त भी जो प्रमाण इस सम्बन्ध में हो उन्हें विद्वान लोगे भेंजे, उन सबको 1 मास के अन्दर प्राप्त कर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कराया जायेगा। इस मण्डली के 23 सम्मानित सदस्यों में उस समय के प्राय: सभी प्रतिष्ठित पुरूषों सरदारों के नाम और हस्ताक्षर थे, जो इस पुस्तिका में देखे जा सकते हैं। कहना नहीं होगा सरकार बहादुर को ज्ञापन देकर पण्डित वर्ग ने फिर शास्त्रों की खोज−ख़बर लेने का काम नहीं किया, और इस मण्डली की बड़ी पुस्तक फिर नहीं निकल सकी। सारे समाज में कर्मठ विद्वान केवल एक पण्डित दत्तराम जी निकले जिन्होंने प्रयास कर अपना संकलन स्वयं ही प्रकाशित कराया। दूसरे विद्वान श्रीराधाचन्द ने भी अपनी रचना प्रस्तुत की।
यहाँ सरकार को दिये गये ज्ञापन का संक्षिप्त विवरण देना उपयुक्त होगा। ज्ञापन में कहा गया था−’माथुर चतुर्वेंदी अव्वल दर्जे के ब्राह्मणों में से हैं, उसी में उनको रखना चाहिये। आजकल अल्ल और देश समाख्या से अनेक प्रकार के ब्राह्मण इस भूतल पर है, परन्तु थोड़े दिन से कतिपय ब्राह्मणत्वभिमानी ‘दस ब्राह्मण, ब्राह्मण शेष सब ब्राह्मण गणना से बहिष्कृत’ ऐसा कहते हैं। यह बात ग़लत और निराधार है। यदि ब्रह्मा के दस पुत्रों से दस पुत्रों से दस ब्राह्मण मानें तो शास्त्रों का ही लेख इसका खण्डन करता है। दक्ष के हर्यश्वादि पुत्र प्रजा शून्य विरक्त हो गये, नारद जी भी प्रग्रज रहे, तब आठ ऋषियों की सन्तान अष्ट ब्राह्मण होने चाहिये। इनमें कौन गौड़ देश में गये, कौन द्रविण देश में इसका शास्त्र में कोई प्रमाण नहीं हैं। गोत्र भी दस नहीं हैं।
राजर्षि मनु ने मनुस्मृति में ब्रह्मर्षि देश (कुरु मत्स्य, पांचाल, शूरसेन) देश के ब्राह्मणों को सम्पूर्ण पृथ्वीतल (भुवन कोष) के चरित्र शिक्षक और सर्वोंपरि श्रेष्ठ ब्राह्मण घोषित किया है।
कुरूक्षेत्राश्च मत्स्याश्य पांचाला शूरसेनका:।
एष ब्रह्मर्षि देशों वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:।।19।।
एतद्देश प्रसूतस्य एकाशादग्र जन्मन:।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरत् पृथिव्यां सर्व मानवा:।।14।। मनु स्मति 2-19-20
इसके बिल्कुल विपरीत ही ब्रह्मर्षि देश से अधोभाग के दिशा सीमान्त देशों को परम भ्रष्ट और प्रायश्यितार्ह कहा है :
अंग बंग कलिंगेषु सौराष्ट्रे मगधेषुच।
तीर्थ यात्रां बिना गच्छन्पुन: संस्कार मर्हति।
जब अंग (बिहार) बंग (बंगाल) कलिंग (उड़ीसा) सौराष्ट्र (काठियाबाड़) मगध (गया, पटना, बिहार) देशों को बिना तीर्थ यात्रा के वहाँ जाने पर प्रायश्चित योग्य कहा गया है, तो वहाँ के निवासी पंच गौड़ द्रविणादि श्रेष्ठ और पवित्र कैसे हो सकते हैं। देशाख्या वाले ब्राह्मण अपने नामांकित देश की पवित्रता या अपवित्रता के कारण ही श्रेष्ठ नेष्ठ होते हैं। प्रथम आर्यवर्त श्रेष्ठ, फिर मध्य देश उसमें गंगा यमुना के मध्य की पावन यज्ञभूमि, उसमें भी ब्रह्मर्षि देश तथा उसका भी शीर्षस्थल ब्रज मण्डल और फिर इन सबका हृदय कमल अधिबास सप्तपुरी मुकुटमणि मथुरा फिर निवासी वेद, स्मृति, पुराण प्रशंसित माथुर ब्राह्मणों के पवित्रातिपवित्रतम होने में अन्य कपोल कल्पित प्रमाणान्तरों की क्या अपेक्षा है। इस प्रमाण पत्रिका में इतने पर भी शीघ्रता में कुछ प्रमाण संकलित कर प्रस्तुत किये गये हैं, यथा
ऋर्षिर्माथुर नामात्र ह्यकरोदुश्चर्र तप:।
ततोस्य माथुरं नाम भवदाद्यं श्रियायुतम्।।
पद्म पाताल खंड।।
परम पवित्र श्रेत्र में माथुर नाम के ऋषियों ने घोर तप किया था इसी से इस देश का नाम श्रीयुक्त माथुर मण्डल ऐसा प्रसिद्ध हुआ। स्कंद पुराण के काशी खण्ड में से भी एक प्रसंग है
‘मथुरायां द्विज: कश्चिदित्यारभ्य…..
इति श्रण्वन्कथां रम्याशिवशर्माथ माथुर:।
मुक्ति पुर्य्यांतु संस्नातो माया पुर्वांगत स्तदा……..पर्यन्तं।
इस प्रसंग में शिव शर्ना माथुर ब्राह्मण श्रेंष्ठ तपस्वी था।
अनृचो माथुरो यत्र चतुर्वेदस्तथा पर:।
चतुर्वेदं परित्यज्य माथुरं परिपूजयेत्।।
मथुराणां हि यद्रूपं तन्मेरूपं बसुन्धरे।
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजता:।।
न केशव समोदेवो न माथुर समो द्विज:।
न विश्वेश समं लिंग सत्यं सत्यं बसुन्धरे।।
माथुरा मम पूज्याहि माथुरा मम बल्लभा।
माथुरो परितुष्टे वै तुष्टो हं नात्र संशय:।।
भवतिं सर्वतौर्थानिं पुण्या न्याण्तनानि च।
मंगलानि च सर्वाणि यत्र तिष्ठन्ति माथुरा:।।
माथुरा परमात्मानो माथुरा परमा शिष:।
माथुरा मम देहावै सत्यं सत्यं बसुन्धरे।।
एकेन पूजितेन स्यान्माथुरेणाखिलंहितत्।
वेदैश्चतुर्भिंर्नैंवस्यन्माथुरेण सम: पुमान्।।
माथुराणां तु तन्द्रुप तन्मेरूपं विहंगम।
ये पापास्तेन पश्यन्ति मद्रूपान्माथुरान्द्विजान्।।
इन वराह पुराण के प्रमाणों में माथुरों को दूसरे चारों वेद जानने वाले बाह्मणों से श्रेष्ठ कहा है। माथुरों को भगवान विष्णु ने अपना ही परम पूजनीय स्वरूप बतलाया है, एक ब्राह्मण को भोजन कराना कोटि तृप्ति के तुल्य कहा है। माथुरों को सर्व मंगल स्वरूप मानकर उनके बैठने के स्थान को भी परम पुण्यमय तीर्थ बन जाना कहा गया है। एक माथुर ब्राह्मण की पूजा से अखिल देवऋषियों एवं ब्रह्माण्ड की पूजा का पुण्य है। जो माथुरों के भगवद्रूप विग्रह को नहीं देख पाते वे निश्चय ही महापापी जीव है, ऐसा श्रेष्ठ महात्म्य माथुरों का इन पुरातन शास्त्री में हैं।
‘माथर चन्द्रोदय’ के पृष्ठ 8 में अन्त में कहा गया है कि सिवाय इन प्रमाणों के इस वक़्त के प्रमाणों से भी हम श्रेष्ठ हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण श्रीशंकराचार्य, श्रीरामानुचार्य, विष्णु स्वामी, श्रीनिम्बार्काचार्य आदि भारत पूज्य आचार्यों ने भी हमकों परम उत्कृष्टता के साथ मान्य किया है, सो उनके लेखपत्री से स्पष्ट है। अकबर, आलमगीर, शाहजहाँ के परवाने भी हम लोगों के पास हैं, और लीक जरनैल वगैरह के परमाने राजा महाराजाओं की सनदों से भी हम श्रेष्ठ ब्राह्मण अव्व्ल दर्जे के हैं। इसमें यदि सन्देह हो तो उन सबकी नकलें पेश की जावें।
माथुर कीर्तिध्वजा 1960 विक्रम पंडित दत्तरामजी संग्रहीत है। इसमें माथुरों के गौरव सम्बन्धी प्रमाणों का संग्रह किया गया है। यह पुस्तक बहुत वर्ष पूर्व हमारे देखने में आई थी।
माथुर भास्कर – 1958 विक्रम में रचित तथा 1963 वि. में प्रकाशित भिषक्कवि राधाचन्द्र शर्मा विरचित प्रकाशक-लीमड़ी के महाराज यशवन्तसिंह जी। इसकी भूमिका में कहा है-
‘अपि च ग्रन्थेस्मिन् श्रुतिस्मृति पुराणेतिहास प्रमाणपुर:
सर माथुराणां महात्म्य संक्षेपत: प्रतिपादितम्’।
विद्वान लेखक ने भूमिका में माथुर संहिता नामक एक ओर ग्रन्थ के प्रकाशन की भी सूचना दी थी। परन्तु यह ग्रन्थ अभी तक हमारे देखने में नहीं आया है। सम्भवत: लेखक ने उसे प्रकाशित किया हो और आज वह अनुपलब्ध हो रहा हो। इस रचना में विप्रभेद विप्रवृत्ति श्रेष्ठ विप्र, युग, धर्म, त्याज्य धर्म, मतमतान्तर, तीर्थवास श्रेष्ठत्व विप्रनिन्दकों का राक्षसत्व आदि वर्णित है। बाराह यज्ञ में माथुरों की प्रशस्ति इस प्रकार है-
पूर्व काले युगे सत्ये श्रीबराह ह्यभूत्प्रभु:।
सप्तर्षिभि: सह तदा स्वयं यज्ञं चकार स:।। 2 1 ।।
दक्षो वशिष्ठो धूम्रश्च भार्गव: कुत्सकस्तथा ।
सुश्रुवश्च भरद्वाज सर्वे धर्म विदावर: ।। 22 ।।
त एते सप्तमुनयश्चतुर्वेद परायणा:।
अतस्तेषाहि सन्तानाश्चतुर्वेंदा: प्रकीर्तिता:।। 23 ।।
सर्व धर्म प्रणेतार: श्रौतस्मार्त मतानुगा:।
मथुरा वास करणा देव माथुर संज्ञका: ।। 23 ।।
माथुर भास्कर पृष्ठ 13
आगे अयोध्यापति श्रीराम द्वारा माथुर पूजन तथा लवण से परित्राग का वर्णन तथा श्रीकृष्ण रक्षार्थ सदक्षिणा यज्ञ का वर्णन है। अन्त में माथुरों के गोत्र, महात्मा श्री उजागर देवाचार्य की वंशाबलि का वर्णन दिया है। इनके परम् यशस्वी अतुलित त्यागमूर्ति वंशधर श्री गोविन्ददेव जी के 81 मन स्वर्णराशि त्याग का वर्णन बड़े मार्मिक छन्दों में है—
आसीद्देव बुन्देलखण्ड दतियाराजो वृसिंह: पुरा:।
यो भादानतुलान नेक शकटै रानीतवानकांचनम्।।
दातु श्री यमुनातटे मधुपुरे गोविन्ददेवेन यो।
दर्पोक्त्या नाहि सत्कृतो न च तत: स्वर्ण ग्रहीतं महत्।।56।।
तेनाद्यापति गृहे गृहे सुकृतिनो गायन्ति तत्यागिताम्।
तत्त्यक्तेन धनेन चान्य पुरूषा: पूर्तिगता: केचन।।
मध्ये नव्य मठा ब्रजस्य रचिता: केचिच्च संरक्षिता:।
एवं त्यागवतेन भूमिपतयो ग्रामानने कान्ददु:।।57।।
माथुर भास्कर पृष्ठ 22
बुन्देल खण्ड में दतिया के महाराज बृसिंहदेवजू थे। वे मथुरा में दान के लिये असीमित स्वर्ण बैलगाड़ियों में भरकर लाये थे। मथुरा में यमुना तट पर अपने तीर्थाचार्य श्री गोविन्ददेव को दान देते समय अभिमान के शब्द कहकर रुष्ट कर दिया, जिससे उन महात्यागी पुरोहित महानुभाव ने उस सारे स्वर्ण को क्षण मात्र में परित्याग कर दिया।इस महान त्याग की विप्र महिमामयी प्रशस्ति को आज भी मथुरा में लोग गान करते हैं। इस महापुरूष के त्यागे स्वर्ण से बहुत से दूसरे लोग सम्पन्न हो गये तथा उससे ही ब्रज में अनेक नवीन देव मन्दिर बने और प्राचीन स्थलों का जीर्णोद्धार हुआ। अपने गुरु के इस त्याग से दूसरे अनेक नरेश बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उनका अपूर्व सम्मान कर उन्हें बहुत से गाँव जागीरें भेंट की श्री गोविन्द के अनुपम त्याग के वर्णन में रची गई श्री ‘छगन मगन’ की एक कविता हमें प्राप्त हुई है।
5-माथुर मानमण्डन – 1900 वि. श्री नारायण दत्तजी पाठक रचित माथुर हितैषी के संस्थापक और सम्पादक महोदय को विद्वतापूर्ण निबन्ध के रूप में रची गई रचना है जो पच्चीस पृष्ठों में है।
6-माथुर इतिहास – श्रीयुगलकिशोर जी चतुर्वेदी ने बड़े परिश्रम के साथ इस इतिहास को प्रस्तुत किया है। इसका मथुरा महिमा खण्ड वैद्य श्रीनटवरलाल जी ने प्रकाशित कराया था। इस रचना को पुनलेखन करके श्री चतुर्वेदी ने इसे प्रकाशित कर दिया है।
7-मथुरा एवं माथुर चतुर्वेदी संक्षिप्त परिचय- 2033 विक्रमी। उत्तर प्रदेशीय तीर्थ पुरोहित महासभा के द्वितीय मथुरा में आयोजित अधिवेशन के अवसर पर यह पुस्तिका प्रकाशित की गई है। इसमें संक्षेप में तीर्थों का महत्व मथुरा तथा माथुर तीर्थ पुरोहितों के महात्भ्य का संक्षिप्त संकलन दिया गया है।
8- चतुर्वेंदी सेवा समाज स्मारिका – 2040 वि.। इस स्मारिका अंक में ब्रज मथुरा और माथुर चतुर्वेदियों का बिना किसी सम्पादन या क्रम के महत्वपूर्ण साहित्य प्रकाशित हुआ है जो अपने समय का एक प्रशंसनीय प्रयास है।
आज मुझे बहुत हर्ष हुआ कि हमारी वंशावली के बारे में हमें अच्छी तरह से पता नहीं था यह सारे पृष्ठों को पढ़कर मुझे अति आनंद और गौरवान्वित महसूस हो रहा है बहुत अच्छी तरह से चतुर्वेदी परिवार की शान सांवली को बताया गया है धन्य है जो लोग बढ़ते हुए समाज में हीन भावना से जो लोग पूर्वांचल के विचार रखते हैं चतुर्वेदी फैमिली के बारे में उन्हें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हम लोग उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं
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