उर्वशी थक जाती है इंद्र के सामने नाचते—नाचते और प्रार्थना करती है कि कुछ दिन की छुट्टी मिल जाए।
मैं पृथ्वी पर जाना चाहती हूं। मैं किसी मिट्टी के बेटे से प्रेम करना चाहती हूं।
देवताओं से प्रेम बहुत सुखद हो भी नहीं सकता। हवा हवा होंगे। मिट्टी तो है नहीं, ठोस तो कुछ है नहीं। ऐसे हाथ घुमा दो देवता के भीतर से, तो कुछ अटकेगा ही नहीं। कोरे खयाल समझो, सपने समझो। कितने ही सुंदर ही सुंदर लगते हों, मगर इंद्रधनुषों जैसे।
स्वभावत: उर्वशी थक गयी होगी।
स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उन्हें कुछ ठोस चाहिए। नाचते—नाचते इंद्रधनुषों के पास उर्वशी थक गयी होगी, यह मेरी समझ में आता है। उर्वशी ने कहा कि मुझे जाने दो। मुझे कुछ दिन पृथ्वी पर जाने दो। मैं पृथ्वी की सौंधी सुगंध लेना चाहती हूं। मैं पृथ्वी पर खिलनेवाले गुलाब और चंपा के फूलों को देखना चाहती हूं। फिर से एक बार मैं पृथ्वी के किसी बेटे को प्रेम करना चाहती हूं।
चोट तो इंद्र को बहुत लगी, क्योंकि अपमानजनक थी यह बात। लेकिन उसने कहा : ‘ अच्छा जा, लेकिन एक शर्त है। यह राज किसी को पता न चले कि तू अप्सरा है। और जिस दिन यह राज तूने बताया उसी दिन तुझे वापिस आ जाना पड़ेगा।’
उर्वशी उतरी और पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। बड़ी प्यारी कथा है उर्वशी और पुरुरवा की! पुरुरवा—पृथ्वी का बेटा; धूप आए तो पसीना निकले और सर्दी हो तो ठंड लगे। देवताओं को न ठंड लगे, न पसीना निकले। मुर्दा ही समझो। मुर्दों को पसीना नहीं आता, कितनी ही गर्मी होती रहे, और न ठंड लगती। तुमने मुर्दों के दांत किटकिटाते देखे? क्या खाक दांत किटकिटाके! और मुर्दा दांत किटकिटाए तो तुम ऐसे भागोगे कि फिर लौटकर नहीं देखोगे।
पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। ऐसी सुंदर थी उर्वशी कि पुरुरवा को स्वभावत: जिज्ञासा होती थी—जिज्ञासा मनुष्य का गुण
है—कि पुरुरवा उससे बार—बार पूछता था : ‘तू कोन है? हे अप्सरा जैसी दिखाई पड़नेवाली उर्वशी, तू कोन है? तू आयी कहां से? ऐसा सौंदर्य, ऐसा अलौकिक सौंदर्य, यहां पृथ्वी पर तो नहीं होता!’
और कुछ चीजों से वह चिंतित भी होता था। उर्वशी को धूप पड़े तो पसीना न आए। उर्वशी वायवीय थी, हल्की—फुल्की थी, ठोस नहीं थी। प्रीतिकर थी, मगर गुड़िया जैसी, खिलौने जैसी। न नाराज हो, न लड़े—झगड़े। जिज्ञासाएं उठनी शुरू हो गयीं पुरुरवा को।
आखिर एक दिन पुरुरवा जिद ही कर बैठा। रात दोनों बिस्तर पर सोए हैं, पुरुरवा ने कहा कि आज तो मैं जानकर ही रहूंगा कि तू है कौन? तू आयी कहां से? नहीं तू हमारे बीच से मालूम होती। अजनबी है, अपरिचित है। नहीं तू बताएगी तो यह प्रेम समाप्त हुआ। यह तो धमकी थी, मगर उर्वशी घबड़ा गई और उसने कहा कि फिर एक बात समझ लो। मैं बताती तो हूं, लेकिन बता देते ही मैं तिरोहित हो जाऊंगी। क्योंकि यह शर्त है।
पुरुरवा ने कहा : ‘कुछ भी शर्त हो…।’ उसने समझा कि यह सब चालबाजी है। औरतों की चालबाजिया! क्या—क्या बातें निकाल रही है! तिरोहित कहां हो जाएगी! तो उसने बता दिया कि मैं उर्वशी हूं _ थक गयी थी देवताओं से। पृथ्वी की सौंधी सुगंध बुलाने लगी थी। चाहती थी वर्षा की बूंदों की टपटप छप्पर पर, सूरज की किरणें, चांद का निकलना, रात तारों से भर जाना, किसी ठोस हड्डी—मांस—मज्जा के मनुष्य की छाती से लगकर आलिंगन। लेकिन अब रुक न सकूंगी।
पुरुरवा उस रात सोया, लेकिन उर्वशी की साड़ी को पकड़े रहा रात नींद में भी। सुबह जब उठा तो साड़ी ही हाथ में थी, उर्वशी जा चुकी थी। तब से कहते हैं _ पुरुरवा घूमता रहता है, भटकता रहता है, पूछता फिरता है : ‘उर्वशी कहां है?’ खोज रहा है।
शायद यह हम सब मनुष्यों की कथा है। प्रत्येक आदमी उर्वशी को खोज रहा है। कभी—कभी किसी स्त्री में धोखा होता है कि यह रही उर्वशी, फिर जल्दी ही धोखा टूट जाता है।
"उर्वशी" शब्द भी बड़ा प्यारा है—हृदय में बसी, उर्वशी। कहीं कोई हृदय में एक प्रतिमा छिपी हुई है, जिसकी तलाश चल रही है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं : ‘प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री की एक प्रतिमा है, प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, जिसको वह तलाश रहा है, तलाश रही है। मिलती नहीं है प्रतिमा कहीं। कभी—कभी झलक मिलती है कि हां यह स्त्री लगती है उस प्रतिमा जैसी; बस लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। कभी कोई पुरुष लगता है उस जैसा; फिर जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। और तभी दूरियां शुरू हो जाती हैं। पास आते, आते, आते, सब दूर हो जाता है
ओशो,
मेरा स्वर्णिम भारत
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Harshit chaturvedi