24 October 2016

श्री कृष्ण भक्ति रस महिमा



कृष्ण बहिर्मुख जीव कहँ, माया करति अधीन। ताते भूल्यो आपु कहँ, बन्यो विषय-रस-मीन।। भावार्थ-- अनादिकाल से जीव अपने स्वामी से विमुख है। अतएव माया ने वश में कर लिया है। परिणामस्वरूप जीव स्वयं को देह मानने लगा एवं संसारी विषयों में आसक्त हो गया। व्याख्या- कुछ भोलेभाले ज्ञानाभिमानी माया तत्त्व को ही नहीं मानते। अतः माया तत्त्व पर गंभीर कर लीजिए। वेद कहते है - मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ।। (श्वेता. ४-१०) अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत तस्मिन्श्चान्यो मायया संनिरुद्धः (श्वेता. ४-९ ) ब्रह्मैव स्वशक्तिन् प्रकृत्यभिधेयां आश्रित्य लोकान्स्राष्टवा... और भी अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बाह्वी: प्रजा: सृजमानां सरूपा:। ( श्वेता. ४-५) क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानाविशते देव एकः । ( श्वेता. १-१०) द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविध्ये निहिते यत्र गू ढे। क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविध्ये ईशते यस्तु सोsन्य:।। ( श्वेता. ५-१)

ब्रह्मसूत्र भी-
ईक्षतेर्नाशब्दम्। ( ब्रह्मसूत्र १-१-५) रचनानुपपत्तेश्च । ( ब्रह्मसूत्र २-२-१) गीता जी भी- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। (७-१४) मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । ( ९-१०) भूमिरापोsनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च्।। ( ७-४) अपरेयमितसत्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् । ( ७-५ ) भागवतजी भी - एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यंतकारिणी। ( ११-३-१६ ) माया ह्येषा भवदिया हि भूमन् । ( ४-७-३७ ) सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते। ( ३-७-९ ) रामायण भी - सो दासी रघुवीर की । जासु सत्यता ते जड़माया। शंकराचार्य के अनुयायी प्रख्यात अद्वैती विद्यारण्य ने कहा - "तस्मादुभयं मिलित्वैव जगत्कारणं भवति।" अर्थात् केवल ब्रह्म सृष्टि नहीं कर सकता एवं केवल जड़ माया भी सृष्टि नहीं कर सकती। अतः दोनों मान्य हैं। माया तत्त्व का भागवतजी में अद्वितीय निरूपण किया गया है। ( २-९-३३ ) ऋतेsर्थ यत्प्रतीयते न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मने मायां यथाssभासो यथा तमः।। अर्थात्- मेरे बिना ही माया की प्रतीति होती है। प्रतीति का तात्पर्य है उन्मुखता। जो जीव मेरी शरण में नहीं आये, उन्ही पर माया का अधिकार होता है। दूसरी परिभाषा यह है कि मेरे बिना जिसकी प्रतीति नहीं होती। अर्थात् मेरी प्रेरणा शक्ति के बिना जड़माया कुछ नहीं कर सकती। अब उदहारण लेते है- यथाभास:- आकाश में स्थित सूर्य का प्रतिबिंब जल आदि में पड़ता है। वह प्रतिबिंब सूर्य के बाहर ही है। और यह प्रतिबिंब भी सूर्य के आश्रय से ही प्रकट होता है। वैसे ही माया भी अपने शक्तिमान भगवान् से बाहर ही रहती है। किन्तु भगवान् की शक्ति के आश्रय से ही कार्य करती है। यथातमः - अंधकार सदा प्रकाश से दूर ही रहता है। किन्तु प्रकाश के बिना अंधकार की प्रतीति भी नहीं हो सकती। चक्षु के प्रकाश से ही तो अंधकार का निर्णय हो सकता है। इस माया शक्ति की दो (२) वृत्तियाँ होती हैं। १. जीव माया , २. गुण माया। १. जीव माया - यह जीव के स्वस्वरूप को आवृत कर देती है। जिससे जीव स्वयं को देह मान् बैठता है। पुनः संसार में रक्त हो जाता है । २. गुण माया - सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति। पुनः जीव माया की भी दो शक्तियाँ होती हैं। १. आवरणात्मिका जीव माया - इससे जीव निजस्वरूप को भूल जाता है। २. विक्षेपात्मिका जीव माया -- इससे जीव संसार में आसक्त हो जाता है। यह जीवमाया एवं गुणमाया दोनों ही सृष्टि में गौणकारण हैं अर्थात् जीवमाया, गौण निमित्तकारण एवं गुणमाया गौण उपादान कारण हैं। मुख्य निमित्तोपादान कारण तो श्रीकृष्ण ही है। तात्पर्य यह कि बहिर्मुख होने के कारण माया द्वारा स्वस्वरूप भुलाया। फिर स्वयं को देह मान कर संसार में ही आत्मा का दिव्य सुख खोजने लगा। अतः ब्रह्मलोक पर्यन्त अनंत बार विविध सुखों के भोग में ही अनवरत लगा रहा। अनंत बार स्वयं भगवान् के अवतार स्वरूप को देखा। तथा अनन्त संतों के पास भी गया किन्तु मायिक इंद्रिय मन बुद्धि होने के कारण कभी कँही शरणागत न हो सका इन सब दुखो का कारण श्री कृष्ण की विमुखता ही है

अतःइससे निर्व्रंती का उपाय भी समुखता या शरणागति ही है अतः गीता जी कहती है ----

देवी होषा गुणमयी मम्ममाया दुरत्यया |
मामे ये प्रपधन्ते यामामेता तरन्ति ते || ( ७-१४ )

-- आनन्द चतुर्वेदी ( नन्दा )

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Harshit chaturvedi