21 March 2022

ऋतुराज बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणो

ऋतुराज बसंत 

ऋतुराज बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणो


बसंत ऋतु के छा जाने पर प्रकृति षोडशी, कल्याणी व सुमधुर रूप लिए अठखेलियाँ दिखलाती, कहीं कलिका बन कर मुस्कुराती है तो कहीं आम्र मंजिरी बनी खिल-खिल कर हँसती है.और कहीं रसाल ताल तड़ागों में कमलिनी बनी वसंती छटा बिखेरती काले भ्रमर के संग केलि करती जान पड़ती है. 

 

बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणो का संचार होता है. ब्रृज भूमि में गोपी दल, अपने सखा श्री कृष्ण से मिलने उतावला-सा निकल पड़ता है. श्री रसेश्वरी राधा रानी अपने मोहन से ऐसी मधुरिम ऋतु में कब तक नाराज़ रह सकती है? प्रभु की लीला वेनु की तान बनी, कदंब के पीले, गोल-गोल फूलों से पराग उड़ती हुई, गऊधन को पुचकारती हुई, ब्रज भूमि को पावन करती हुई, स्वर-गंगा लहरी समान, जन-जन को पुण्यातिरेक का आनंदानुभव करवाने लगती है.

ऐसे अवसर पर, वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हो उठता है. 

 

"फिर पछतायेगी हो राधा, 

कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा

बहुर गोपल भेख कब धरि हैं, कब इन कुंजन, बसि हैं

यह जड़ता तेरे जिये उपजी, चतुर नार सुनि हँसी हैं

रसिक गोपाल सुनत सुख उपज्यें आगम, निगम पुकारै,

"परमानन्द" स्वामी पै आवत, को ये नीति विचारै"

 

गोपी के ठिठोली भरे वचन सुन, राधाजी, अपने प्राणेश्वर, श्री कृष्ण की और अपने कुमकुम रचित चरण कमल लिए,स्वर्ण-नुपूरों को छनकाती हुईं चल पड़ती हैं! वसंत ऋतु पूर्ण काम कला की जीवंत आकृति धरे, चंपक के फूल-सी आभा बिखेरती राधा जी के गौर व कोमल अंगों से सुगंधित हो कर, वृंदावन के निकुंजों में रस प्रवाहित करने लगती है. लाल व नीले कमल के खिले हुये पुष्पों पर काले-काले भँवरे सप्त-सुरों से गुंजार के साथ आनंद व उल्लास की प्रेम-वर्षा करते हुए रसिक जनों के उमंग को चरम सीमा पर ले जाने में सफल होने लगते हैं.

 

"आई ऋतु चहुँ-दिसि, फूले द्रुम-कानन, कोकिला समूह मिलि गावत वसंत ही,

मधुप गुंजरत मिलत सप्त-सुर भयो है हुलस, तन-मन सब जंत ही

मुदित रसिक जन, उमंग भरे हैं, नही पावत मन्मथ सुख अंत ही,

"कुंभन-दास" स्वामिनी बेगि चलि, यह समय मिलि गिरिधर नव कंत ही"

 

ऋतु राज वसंत के आगमन से, प्रकृति अपने धर्म व कर्म का निर्वाह करती है. पेड़ की नर्म, हरी-हरी पत्तियाँ, रस भरे पके फलों की प्रतीक्षा में सक्रिय हैं. दिवस कोमल धूप से रंजित गुलाबी आभा बिखेर रहा है तो रात्रि, स्वच्छ, शीतल चाँदनी के आँचल में नदी, सरोवर पर चमक उठती है. प्रेमी युगुलों के हृदय पर अब कामदेव, अनंग का एकचक्र अधिपत्य स्थापित हो उठा है. वसंत ऋतु से आँदोलित रस प्रवाह,वसंत पंचमी का यह भीना-भीना, मादक, मधुर उत्सव, 

 

"आयौ ऋतु-राज साज, पंचमी वसंत आज,

मोरे द्रुप अति, अनूप, अंब रहे फूली,

बेली पटपीत माल, सेत-पीत कुसुम लाल,

उडवत सब श्याम-भाम, भ्रमर रहे झूली

रजनी अति भई स्वच्छ, सरिता सब विमल पच्छ,

उडगन पत अति अकास, बरखत रस मूली

बजत आवत उपंग, बंसुरी मृदंग चंग,

यह सुख सब " छीत" निरखि इच्छा अनुकूली"

 

प्रकृति नूतन रूप संजोये, प्रसन्न है सब कुछ नया लग रहा है कालिंदी के किनारे नवीन सृष्टि की रचना, सुलभ हुई है

 

"नवल वसंत, नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल

नवल ही कान्हा, नवल सब गोपी, नृत्यत एक ही तूल

नवल ही साख, जवाह, कुमकुमा, नवल ही वसन अमूल

नवल ही छींट बनी केसर की, भेंटत मनमथ शूल

नवल गुलाल उड़े रंग बांका, नवल पवन के झूल

नवल ही बाजे बाजैं, "श्री भट" कालिंदी के कूल

नव किशोर, नव नगरी, नव सब सोंज अरू साज

नव वृंदावन, नव कुसुम, नव वसंत ऋतु-राज"




आज सो व्रज में गुलाल सो होरी को उत्सब प्रारम्भ  होवे 

वसंत पंचमी की सभी को खूब खूब बधाई 


जय यमुना मैया की !

15 March 2022

युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न | अनोखी कथा

 

युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न | अनोखी कथा


युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न | अनोखी कथा


यक्ष ने वनवास के दौरान युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न किए।

उनसे एक प्रश्न किया गया कि किन-किन सदगुणों के कारण मनुष्य क्या-क्या पल प्राप्त करता है और मानव का पतन किन-किन अवगुणों के कारण होता है?


युधिष्ठिर ने बताया,"वेद का अभ्यास करने से मनुष्य श्रोत्रिय होता है,

जबकि तपस्या से वह महत्ता प्राप्त करता है।जिसने मन पर नियंत्रण कर लिया,

वह कभी दुखी नहीं होता।सद्पुरुषों की मित्रता स्थाई होती है।

अहंकार का त्याग करने वाला सबका प्रिय होता है।

जिसने क्रोध व लोभ को त्याग दिया,वह हमेशा सुखी रहता है।कामना को छोड़ने वाला व संतोष धारण करने वाला कभी दरिद्र नहीं हो सकता।

कुछ क्षण रुककर उन्होंने आगे कहा,

"स्वधर्म पालन का नाम तप है।

सबको सुखी देखने की इच्छा करुणा है।

क्रोध मनुष्य का बैरी है और लोभ असीम व्याधि।जो जीव मात्र के हित की कामना करता है,

वह साधु है।जो निर्दयी है,वह दुर्जन है।स्वधर्म में लगे रहना ही स्थिरता है।

मन के मैल का त्याग करना ही सच्चा स्नान है।

युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देकर उसे संतुष्ट कर दिया।

धर्मराज युधिष्ठिर स्वंय सभी सदगुणों का पालन करते थे।

ऐसे अनेक प्रसंग आए ,जब वह धर्म के आदेशों पर अटल रहे।

अनेक कठिनाइयां सहन करने के बाद भी उन्होंने धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा ।

    

10 March 2022

गोस्वामी तुलसीदास जी बृंदावन पहुंचे | अनोखी कथा

 

गोस्वामी तुलसीदास जी बृंदावन पहुंचे | अनोखी कथा

गोस्वामी तुलसीदास जी बृंदावन पहुंचे | अनोखी कथा



नंददास जी उन्हें आदर सहित कृष्ण मंदिर में ले गए। तुलसीदास जी ने शीश नवाने की अटपटी शर्त आराध्य के सामने रख दी। कहा, मैं तो अपने राम को खोज रहा हूं, 

श्रीकृष्ण के राम-रूप को! बालहठ में पड़े तुलसीदास जी ऐसे रामभक्त बन गए जो गंगा में बैठकर गंगाजल खोजता है। लीला केवल भगवान ही करें, ऐसा जरूरी तो नहीं। भक्त भी करता है और भगवान उसका रस लेते हैं-


कहा कहैं छवि आपकी, भले बने हो नाथ।

तुलसी मस्तक तब नवे, धनुष-बाण लो हाथ।।


श्रीकृष्ण पुलकित होकर राममय हो गए। कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति में बदल गई थी। दोनों में कोई भेद ही नहीं है तो कृष्ण में राम कैसे न दिखते तुलसी को.. 


गीता में अर्जुन से श्रीकृष्ण कहते हैं- 

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

-गीता १०/३१


अर्थात, मैं पावनकर्ता में पवन और शस्त्रधारियों में राम हूं। राम ने जो किया और श्रीकृष्ण ने जो बताया, दोनों सर्वोत्कृष्ट हैं। मानव से महामानव बनने का यही मार्ग है!


राम कृष्ण दोउ एक हैं अंतर नहीं निमेश।

एक के नयन गंभीर हैं, दूजे चपल विशेष।।


 

06 March 2022

कौशिक युवा ब्राह्मण थे | अनोखी कथा

कौशिक युवा ब्राह्मण थे  | अनोखी कथा

कौशिक युवा ब्राह्मण थे  | अनोखी कथा

उन्हें लगा कि गृहस्थी में भक्ति व उपासना नहीं की जा सकती।इसलिए माता 

पिता को छोड़ वन में साधना करने लगे। उन्हें दिव्य शक्ति प्राप्ति हुई।एक बार चिड़िया के एक जोड़े ने उन पर बीट कर दिया,तो उन्होंने उसे भस्म कर दिया।

एक दिन उन्होंने एक गृहस्थ के द्वार पर भिक्षा के लिए आवाज लगाई।घर की गृहणी अपने पति को औषधि दे रही थी।काफी देर बाद जब वह भोजन लेकर पहुंची,

तो देखा की भिक्षुक क्रोध में हैं।वह बोली ,"महाराज,मैं रुग्ण पति की सेवा कर रही थी।इसलिए देर हो गई।"कौशिक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह क्रोध में बड़बड़ाते रहे।

गृहिणी का धैर्य जवाब दे गया वह बोली,मैं चिड़िया का जोड़ा नहीं हूँ,जो आपके क्रोध से भस्म हो जाऊंगी।

यह सुनते ही कौशिक हतप्रभ रह गए।फिर उन्होंने गृहणी से धर्म के बारे में पूछा,तो वह बोली "मैं पति व सास -ससुर की सेवा को ही एकमात्र धर्म मानती हूँ ।

आप आप धर्मव्याघ नामक कसाई से ज्ञान प्राप्त करें।धर्मव्याघ के पास जाने पर कौशिक ने देखा कि वह माता-पिता की सेवा में रत है।धर्मव्याघ ने कौशिक से कहा,माता

पिता व वृद्धजनों की सेवा ही सर्वोपरि धर्म है।घर जाओ और माता-पिता की सेवा करो।भगवान की कृपा प्राप्त हो जाएगी।" कौशिक घर लौट गए और माता पिता की सेवा करने लगे।

  

03 March 2022

एक सदगृहस्थ सेठ तीर्थयात्रा के लिए | अनोखी कथा

 

एक सदगृहस्थ सेठ तीर्थयात्रा के लिए 


एक सदगृहस्थ सेठ तीर्थयात्रा के लिए | अनोखी कथा


एक सदगृहस्थ सेठ तीर्थयात्रा के लिए रवाना हुए।उनके अत्यंत करीबी मित्र ने उनसे कहा,"भैय्या,

तुम्हें जगह-जगह संत -महात्मा मिलेंगे।जो संत स्वयं शांत व संतुष्ट दिखाई दें,उनसे मेरे लिए शांति और प्रसन्नता ले आना,चाहे उसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े।"सेठ जिस तीर्थ में पहुंचते,

वहां देखते कि ज्यादातर साधु स्वयं अशांत हैं।वे तीर्थयात्रियों से अपेक्षा करते कि कुछ-न-कुछ उन्हें भेंट किया जाए।ऐसे संत लोगों से कहा करते कि तीर्थ में किया गया दान हजारों गुना पुण्यदायक होता है।तीर्थयात्रा के अंतिम चरण में सेठ को गंगा तट तट पर शांत मुद्रा में बैठे एक संत दिखाई दिए।

उनके चेहरे पर मस्ती का भाव था।वह भगवान की प्रार्थना कर रहे थे।सेठ ने उन्हें प्रणाम करने के बाद कहा," महाराज,मेरे एक मित्र ने कहा था कि किन्हीं पहुंचे हुए संत से शांति व प्रसन्नता प्रदान करने वाली औषधि लेते आना।

मुझे केवल आप ही ऐसे संत मिले हैं,जिन्हें देखकर भरोसा हुआ है कि आप वह औषधि दे सकते हैं।संत कुटिया में गए और अंदर से लाकर एक कागज की पुड़िया सेठ को थमा दी और बोले,इसे खोलना नहीं और बंद पुड़िया मित्र को दे देना।घर लौटकर सेठ ने पुड़िया मित्र को थमा दी।

कुछ ही दिनों में उसने अनुभव किया कि मित्र के जीवन में आमूल -चूल परिवर्तन आ गया है।

तब सेठ ने पुड़िया की औषधि के बारः में मित्र से पूँछा।मित्र ने वह पुड़िया सेठ को थमा दी।उसमें लिखा था,

"संतोष और विवेक सुख -शांति का एकमात्र साधन होता है।"

    यही एकमात्र औषधि है,जो सुखमय-शांतिमय जीवन की गारंटी होता है।


28 February 2022

शंकराचार्य अनूठी प्रतिभा

शंकराचार्य अनूठी प्रतिभा

शंकराचार्य अनूठी प्रतिभा

आदि शंकराचार्य अनूठी प्रतिभा संपन्न आध्यात्मिक विभूति थे। उन्होंने उपनिषदों का भाष्य किया और अनेक प्रेरणादायक पुस्तकों की रचना की।देश भर में भ्रमण कर वह उपदेशों से लोगों को मानव जीवन सफल बनाने की प्रेरणा दिया करते थे।हिमालय यात्रा के दौरान एक निराश गृहस्थ ने उनसे पूछा,"सांसारिक दुखों के कारण मैं आत्मदाह (आत्महत्या)

कर लेना चाहता हूँ।"शंकराचार्य जी ने कहा,"यह मानव जीवन असीम पुण्यों के कारण मिलता है।निराश होने के बजाय केवल अपनी दृष्टि बदल दो,दुख व निराशा से मुक्ति मिल जाएगी।

कामनाएं अशांति का मुख्य कारण हैं।कामनाओं को छोड़ते ही अंधिकार समस्याएं स्वतः हल हो जाएंगी।संयमित व सात्विक जीवन बिताने वाला कभी दुखी नहीं हो सकता।"साधनापंचम में उन्होंने लिखा भी है;

"शांत्यादि परचीयताम्"

यानी सहनशीलता और शांति ऐसे गुण हैं,जो अनेक दुखों से दूर रखते हैं।

इसके साथ ही गर्व व अहंकार का सदा परित्याग करना चाहिए।

धन से कई बातों का भले ही समाधान होता है,किंतु उससे शांति की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

वृद्धावस्था में जीने की आशा रखना,भगवत भजन में मन न लगाना,सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहना मूढ़ता का ही परिचायक है।

ज्ञानी और विवेकी वह है,जो भगवान की भक्ति में लगा रहता है।

                

26 February 2022

माँ का कंबल | अनोखी कथा

 माँ का कंबल 

माँ का कंबल  |  अनोखी कथा


सर्दियों के मौसम में एक बूढ़ी औरत अपने घर के कोने में ठंड से तड़प रही थी। जवानी में उसके पति का देहांत हो गया था। घर मे एक छोटा बेटा था। बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिये उस माँ ने घर-घर जाकर काम किया,काम करते करते बहुत थक जाती थी लेकिन फिर भी आराम नही करती थी। हमेशा एक बात याद करके फिर काम मे लग जाती थी कि जिस दिन बेटा लायक हो जाएगा तभी आराम करेगी।

 देखते देखते समय बीत गया माँ बूढ़ी हो गयी और बेटे को एक अच्छी नौकरी मिल गयी कुछ समय बाद बेटे की शादी कर दी और एक बच्चा हो गया । 

अब बूढ़ी माँ बहुत खुश थी उसके जीवन का सबसे बड़ा सपना पूरा हो गया उसका बेटा लायक हो गया अब उसका बेटा उसकी हर ख्वाहिश पूरी करेगा।

लेकिन ये क्या ...बेटे और बहू के पास माँ से बात करने तक का वक्त नही होता था।बस इतना फर्क पड़ा था माँ के जीवन मे कि पहले वो बाहर के लोगो के जूठे बर्तन धोती थी अब अपने बेटे और बहू के। पहले वो बाहर के लोगो के कपड़े धोती थी अब अपनी बहू और बेटे के फिर भी खुश थी! क्योंकि औलाद तो उसकी थी। सर्दियों का मौसम आ गया था एक टूटी चार पाई पर घर के बिल्कुल बाहर वाले कमरे में एक फ़टे कम्बल में सिमटकर माँ लेटी थी और सोच रही थी कि आज बेटा आएगा तो उससे कहूंगी कि तेरी माँ को बहुत ठंड लगती है एक नया कम्बल लाकर दे दे।शाम को बेटा घर आया तो माँ ने बोला- बेटा ! ठंड बहुत है, मुझे बहुत ठंड लगती है 


और बात ठंड की नही है मैं बूढ़ी हो गयी हु इसलिए शरीर मे जान नही है इस फ़टे कम्बल में ठंड रुकती नही है बेटा कल एक कम्बल लाकर दे दे। बेटा गुस्से से बोला इस महीने घर के राशन में और बच्चे के एडमीशन में बहुत खर्चा हो गया है, पोते को स्कूल में एडमिशन कराना है कुछ पैसे है लेकिन उससे बच्चे का स्वेटर लाना है, तुम्हारी बहु के लिए एक शॉल लाना है तुम तो घर मे ही रहती हो सहन कर सकती हो, हमे बाहर काम करने के लिए जाना होता है सिर्फ दो महीने की सर्दी निकाल लो अगली सर्दी में देखेंगे। 


बेटे की बात सुनकर माँ चुपचाप उस कम्बल में सिमटकर सो गई।अगली सुबह देखा तो माँ अब इस दुनिया मे नही थी बेटे ने सबको खबर दी कि माँ अब इस दुनिया मे नही है सभी रिश्तेदार, दोस्त पड़ोसी इकठ्ठे हो गए बेटे ने मां की अंतिम यात्रा में कोई कमी नही छोड़ी थी। माँ की बहुत बढ़िया अर्थी सजाई थी बहुत महंगा शाल माँ को ओढाया था।सारी दुनिया माँ का अंतिम संस्कार देखकर कह रही थी 


हमें भी हर जन्म में भगवान ऐसा ही बेटा दे मगर उन  लोगों को क्या पता कि मरने  से पहले ओर शायद मरने के बाद भी एक माँ ठंड से तड़प रही थी सिर्फ एक कम्बल के लिए..मित्रों अगर आपके माँ बाप आज आपके साथ है तो आप बहुत भाग्यशाली है आज आप जो कुछ भी हो वो उन्ही की मेहनत और आशीर्वाद से हो। जीते जी अपने माँ बाप की सेवा करना आपका पहला कर्तव्य है क्योंकि उन्होंने आपके लिए अपना पूरा जीवन दे दिया है, इसलिए अभी कदर करलो उनकी नहीं तो मरने के बाद यह सब वस्तु देना बेकार है, याद रखना आज भो माँ बाप थे कल तुम माँ बाप बनोगे उनके बीना हर कार्य अधुरा है.

सदैव प्रसन्न रहिये।*जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है।।

याद रखना सदा*कण कण में ईश्वर व्याप्त है।।

जो उनकी शरण में है*बस वही आश्वस्त है।।

18 February 2022

पाखंड या प्रशाद | अनोखी कथा

                                                               अनोखी कथा

 पाखंड या प्रशाद 

                                       

पाखंड या प्रशाद |  अनोखी कथा

एक बार सन् 1989 में मैंने सुबह टीवी खोला तो जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था। 


एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ? 


हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं 


उसमें से भगवान क्या खाते हैं?

क्या पीते हैं?

क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?


यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं। क्या यह पाखंड नहीं है? 


यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ? 


मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं। 


किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया। 


उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं। 


मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है। फिर वह पूछता है कि किसका है?


तब आप कहते हैं कि यह मेरा है। 


फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है ?


तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है फिर वह पूछता है कि किसका है तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।


अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है। 


उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया । वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के मम कार को हर लिया । यह मेरा है का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया । 


प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है । 


इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है । 


यह मनो विज्ञान है । इतना सुन्दर उत्तर सुन कर मैं भाव विह्वल हो गया । 


कोटि-कोटि नमन है देश के संतों को जो हमें अज्ञानता से दूर ले जाते हैं और हमें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं 


 

15 February 2022

हाथरस माथुर चतुर्वेद का संचिप्त परिचय

हाथरस माथुर चतुर्वेद का संचिप्त परिचय



   


ज्ञात स्रोतों के अनुसार मथुरा के ऊपर लगभग ३२ बार आक्रमण हुए हे प्रतेक आक्रमण का उद्दस्य हत्या लुट धर्मांतरण आदि के माध्यम से भारतीय सस्कृति को नस्त करना था सन १९४३ ई. में याबं बादशाह अहमदशाह अब्द्स्ती ने मथुरा पर आक्रमण किया नगला पयसा के ठाकुर मथुरानाथ जी का मंदिर था !

 

 

जिसमे मदुसुदन जी के अपने इष्ट देव के सबा में जीबन ब्य्तित करते थे तथा चतुर्वेदी भाईयो को दिशा प्रदान करते थे आक्र्न्तो ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया मदुसुदन जी का पूरा परिवार ठकुर जी के चरणों की रछा करते हुए समर्पित हो गये उनके दो पुत्र मुकुट मीणा जी था जुगल किशोर जी शेष थे तथा जुगल किशोर जी के पुत्र बलदेव जी शिशु थे 



और उनके साथ थे और यमुना जी के तट पर आगये मुकुट मीणा जी महराज का पद " ब्रज नव तरुण कदम्ब मुकुट मीणा शाम आज वाकी" पद का ज्ञान करते हुए खा जाता हे इनका शीश कट कट धड से होने पर भी इन पद का गान करता रहा था !

 

पद पूर्ण होने पर गणेश टीले के नीचे प्रभु चरणों को समर्पित हुआ यह भी इनकी पूर्वज स्थली बिध्मान ह इसके पश्चात् जुगल किशोर जी मथुरा नात जी के सात  बेचबा गाव फर्क बाद के सिकंदर पुत्र मडू आदि स्थानों पर रहे मुकुट मीणा जी पारी बार के कुछ सदस्य भी बचे बचाते आकर रहने लगे बर्तमान में बलदेव जी का परिबार हाथरस था




मुकुट मीणा जी का परिवार मडू में रहता हे  बलदेव जी के पुत्र गोप जी के बंश बिष्णु द्दत जी मथुरा गया लाल जी के बंश दुआरिका नाथ जी अयोध्या नाथ जी तथा चिमन जी के वंश हाथरस में बिद्या तप आदि सीबा मद्यमो से इस बंश का नाम उदित किया


-- ले. श्रीकांत चतुर्वेदी 

11 February 2022

रतन कुण्ड स्थित श्री पीठ का संछिप्त इतिहास

रतन कुण्ड स्थित श्री पीठ का संछिप्त इतिहास

महता शैला नामक व्यक्ति | अनोखी कथा



श्री कृष्ण की लीला ब्रज्स्थल मथुरा में माथुर मुनीसो में तांत्रिक शाक्त परम्परा का सूत्रपात सर्वप्रथम रतन कुण्ड स्थित "श्री" पीठ से हे माना जा सकता हे ! इस परिवार में अनेक इसी बिभुतिया उत्पन हुई हे !


 जिन्होंने अपने तेज तपस्या और त्याग से अपने परिवार एवं माथुर समाज को गोर्वान्ति किया हे !


 इस पीठ के संस्थापक सर्वप्रथम सिद्ध पुराण सर्वशास्त्र वेदान्त "श्री" शोडषी विधा अभिसिक्त श्री १०८ गंगाराम जी उपनाम श्री धधल जी पेरगिक हुए जो त्याग की महान मूर्ति थे ! 


कहा जाता हे कि रीमा नरेश महाराज व्रशिंह देव ने साडे तीन मन सोना का तुला दान देते हुए आपसे अभिमान युक्त ये शब्द खे कि एसा तुम्हे दान देने वाला न मेला होगा ! 


इतना कहने पर आपने उत्तर देते हुए कहा कि एसात्याग वाला ब्रह्मण भी आपको न मेला होगा ! कह कर सर्व दान त्याग कर दिया ! 


उसका यह फल निकला राजा रीमा जाते जाते मार्ग में ही कोढ़ी होगया ! जव राजा को ज्ञान हुआ तो वह उनकी सरण में आया एवं उनके आदेशाअनुसार वह सतना से रीमा २० कोस  पैदल गया और आप सवारी पर उसके साथ गये एवं वहा जाकर आपने २४ घंटे में श्री मद्दभागावत  की कथा सुनकर एवं तीन दिन कए अंदर अपनी श्री विधा से राजा के कोढी का निवारण कर देया जिसके परिणाम स्वरूप राजा ने उन्हें दो गाव भेट किये जो आज भी उनकी सतति पर प्राप्त हे !



 आप का त्याग स्र्मती स्तम्भ आज भी विश्राम घाट की तुला पर लिखित रूप से विधमान हे !      

09 February 2022

षटतिला एकादशी | जो सब पापों का नाश करनेवाली है



षटतिला एकादशी 

युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा: भगवन् ! माघ मास के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? उसके लिए कैसी विधि है तथा उसका फल क्या है ? कृपा करके ये सब बातें हमें बताइये ।
 
श्रीभगवान बोले: नृपश्रेष्ठ ! माघ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार पौष) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी ‘षटतिला’ के नाम से विख्यात है, जो सब पापों का नाश करनेवाली है । मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य ने इसकी जो पापहारिणी कथा दाल्भ्य से कही थी, उसे सुनो ।
 
दाल्भ्य ने पूछा: ब्रह्मन्! मृत्युलोक में आये हुए प्राणी प्राय: पापकर्म करते रहते हैं । उन्हें नरक में न जाना पड़े इसके लिए कौन सा उपाय है? बताने की कृपा करें ।
 
पुलस्त्यजी बोले: महाभाग ! माघ मास आने पर मनुष्य को चाहिए कि वह नहा धोकर पवित्र हो इन्द्रियसंयम रखते हुए काम, क्रोध, अहंकार ,लोभ और चुगली आदि बुराइयों को त्याग दे । देवाधिदेव भगवान का स्मरण करके जल से पैर धोकर भूमि पर पड़े हुए गोबर का संग्रह करे ।

 उसमें तिल और कपास मिलाकर एक सौ आठ पिंडिकाएँ बनाये । फिर माघ में जब आर्द्रा या मूल नक्षत्र आये, तब कृष्णपक्ष की एकादशी करने के लिए नियम ग्रहण करें । भली भाँति स्नान करके पवित्र हो शुद्ध भाव से देवाधिदेव श्रीविष्णु की पूजा करें । 

कोई भूल हो जाने पर श्रीकृष्ण का नामोच्चारण करें । रात को जागरण और होम करें । चन्दन, अरगजा, कपूर, नैवेघ आदि सामग्री से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करें । तत्पश्चात् भगवान का स्मरण करके बारंबार श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए कुम्हड़े, नारियल अथवा बिजौरे के फल से भगवान को विधिपूर्वक पूजकर अर्ध्य दें । 

अन्य सब सामग्रियों के अभाव में सौ सुपारियों के द्वारा भी पूजन और अर्ध्यदान किया जा सकता है । अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है:
 
कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव ।
संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ॥
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन ।
सुब्रह्मण्य नमस्तेSस्तु महापुरुष पूर्वज ॥
गृहाणार्ध्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते ।
 
‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण ! आप बड़े दयालु हैं । हम आश्रयहीन जीवों के आप आश्रयदाता होइये । हम संसार समुद्र में डूब रहे हैं, आप हम पर प्रसन्न होइये । कमलनयन ! विश्वभावन ! सुब्रह्मण्य ! महापुरुष ! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है ! जगत्पते ! मेरा दिया हुआ अर्ध्य आप लक्ष्मीजी के साथ स्वीकार करें ।’


तत्पश्चात् ब्राह्मण की पूजा करें । उसे जल का घड़ा, छाता, जूता और वस्त्र दान करें । दान करते समय ऐसा कहें : ‘इस दान के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ।’ अपनी शक्ति के अनुसार श्रेष्ठ ब्राह्मण को काली गौ का दान करें । द्विजश्रेष्ठ ! विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह तिल से भरा हुआ पात्र भी दान करे । 


उन तिलों के बोने पर उनसे जितनी शाखाएँ पैदा हो सकती हैं, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । तिल से स्नान होम करे, तिल का उबटन लगाये, तिल मिलाया हुआ जल पीये, तिल का दान करे और तिल को भोजन के काम में ले ।’
 
इस प्रकार हे नृपश्रेष्ठ ! छ: कामों में तिल का उपयोग करने के कारण यह एकादशी ‘षटतिला’ कहलाती है, जो सब पापों का नाश करनेवाली है ।

07 February 2022

महता शैला नामक व्यक्ति | अनोखी कथा

महता शैला नामक व्यक्ति | अनोखी कथा

महता शैला नामक व्यक्ति | अनोखी कथा



श्रीलंका के सीलोन नगर में महता शैला नामक व्यक्ति रहता था।वह परम ईश्वरभक्त और ईमानदार था।
वह सदाचार पर अडिग रहता था।वह धर्मशास्त्रों का वाक्य दोहराया करता था



 कि बिना परिश्रम के प्राप्त हुआ धन विष का काम करता है।वह पहले जड़ी-बूटियों का थोक व्यापारी था,लेकिन अब वह स्वंय जंगलों से जड़ी-बूटियाँ लाता और उन्हें बेचकर दिन गुजारता था।

  उसका एक मित्र था लरोटा।वह भी पहले काफी धनी था और उसके बाग-बगीचे थे,लेकिन इन दिनों गरीबी के दिन बिता रहा था। एक दिन महता शैसा लरोटा के बगीचे में जमीन खोदकर जड़ी- बूटी तलाश रहा था 


कि अचानक उसे एक घड़ा दिखाई दिया।उसमें सोने की अशर्फियां भरी हुई थीं।


शैसा ने अशर्फियां देखीं,किंतु उसके अंदर की सच्चाई ने लालच को पास भी फटकने नहीं दिया।


उसने घड़े को मिट्टी में ही दबा दिया और लरोटा के पास पहुंचकर सूचना दी कि बगीचे में अशर्फियों से भरा घड़ा है।लरोटा  बगीचे में पहुंचा।अशर्फियां देखकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।


उसने शैसा को कुछ अशर्फियां इनाम में देने की कोशिश की,तो उसने यह कहकर अशर्फियां ठुकरा दीं कि दूसरे का धन "विष"के समान घातक होता है।


लरोटा ने बगीचे की और खुदाई  की,तो उसे अशर्फियों से भरे कई घड़े मिले।शैसा की ईमानदारी से प्रभावित होकर उसने अपनी बहन का विवाह उससे कर दिया।शैसा ने विवाह में भी दहेज नहीं लिया और परिश्रम कर दिन बिताता रहा।


जयश्रीकृणा,
          

05 February 2022

अयोध्या में एक उच्च कोटि के संत | अनोखी कथा


अयोध्या में एक उच्च कोटि के संत | अनोखी कथा

अयोध्या में एक उच्च कोटि के संत | अनोखी कथा



 श्री अयोध्या जी में एक उच्च कोटि के संत रहते थे ,इन्हें रामायण का श्रवण करने का व्यसन था । जहां भी कथा चलती वहाँ बड़े प्रेम से कथा सुनते , कभी किसी प्रेमी अथवा संत से कथा कहने की विनती करते । एक दिन राम कथा सुनाने वाला कोई मिला नहीं । वही पास से एक पंडित जी रामायण की पोथी लेकर जा रहे थे । 


पंडित जी ने संत को प्रणाम् किया और पूछा कि महाराज ! क्या सेवा करे ? 


संत ने कहा – पंडित जी , रामायण की कथा सुना दो परंतु हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रुपया नहीं है ,हम तो फक्कड़ साधु है । माला ,लंगोटी और कमंडल के अलावा कुछ है नहीं और कथा भी एकांत में सुनने का मन है हमारा । 


पंडित जी ने कहा – ठीक है महाराज। संत और कथा सुनाने वाले पंडित जी दोनों सरयू जी के किनारे कुंजो में जा बैठे ।


पंडित जी और संत रोज सही समय पर आकर वहाँ विराजते और कथा चलती रहती । संत बड़े प्रेम से कथा श्रवण करते थे और भाव विभोर होकर कभी नृत्य करने लगते तो कभी रोने लगते। 


जब कथा समाप्त हुई तब संत ने पंडित जी से कहा – पंडित जी ,आपने बहुत अच्छी कथा सुनायी । हम बहुत प्रसन्न है ,हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रूपया तो नहीं है परंतु आज आपको जो चाहिए वह आप मांगो । 


संत सिद्ध कोटि के प्रेमी थे , श्री सीताराम जी उनसे संवाद भी किया करते थे । पंडित जी बोले – महाराज हम बहुत गरीब है ,हमें बहुत सारा धन मिल जाये । 


संत ने प्रार्थना की कि प्रभु इसे कृपा कर के धन दे दीजिये । भगवान् ने मुस्कुरा दिया , संत बोले – तथास्तु । 


फिर संत ने पूछा – मांगो और क्या चाहते हो ? 


पंडित जी बोले – हमारे घर पुत्र का जन्म हो जाए । 


संत ने पुनः प्रार्थना की और श्रीराम जी मुस्कुरा दिए । संत बोले – तथास्तु ,तुम्हे बहुत अच्छा ज्ञानी पुत्र होगा ।


फिर संत बोले और कुछ माँगना है तो मांग लो । 


पंडित जी बोले – श्री सीताराम जी की अखंड भक्ति ,प्रेम हमें प्राप्त हो । 


संत बोले – नहीं ! यह नहीं मिलेगा । 


पंडित जी आश्चर्य में पड़ गए कि महात्मा क्या बोल गए । पंडित जी ने पूछा – संत भगवान् ! यह बात समझ नहीं आयी । 


संत बोले – तुम्हारे मन में प्रथम प्राथमिकता धन ,सम्मान ,घर की है । दूसरी प्राथमिकता पुत्र की है और अंतिम प्राथमिकता भगवान् की भक्ति की है । जब तक हम संसार को , परिवार ,धन ,पुत्र आदि को प्राथमिकता देते है तब तक भक्ति नहीं मिलती । 


भगवान् ने जब केवट से पूछा कि तुम्हे क्या चाहिए ? केवट ने कुछ नहीं माँगा । प्रभु ने पूछा – तुम्हे बहुत सा धन देते है , केवट बोला नहीं । प्रभु ने कहा – ध्रुव पद ले लो ,केवट बोला – नहीं । इंद्र पद, पृथ्वी का राजा और मोक्ष तक देने की बात की परंतु केवट ने कुछ नहीं लिया तब जाकर प्रभु ने उसे भक्ति प्रदान की ।



 हनुमान जी को जानकी माता ने अनेको वरदान दिए – बल, बुद्धि ,सिद्धि ,अमरत्व आदि परंतु उन्हे प्रसन्नता नहीं हुई । अंत में जानकी जी ने श्री राम जी का प्रेम, अखंड भक्ति का वर दिया । प्रह्लाद जी ने भी कहा कि हमारे मन में मांगने की कभी कोई इच्छा ही न उत्पन्न हो तब भगवान् ने अखंड भक्ति प्रदान की ।

01 February 2022

१ फरवरी, मंगलवार को है माघ मौनी अमावस्या

                                                            
१ फरवरी, मंगलवार को है माघ मौनी अमावस्या



१ फरवरी, मंगलवार को है माघ मौनी अमावस्य


इस वर्ष माघ मास की मौनी अमावस्या १ फरवरी २०२२, मंगलवार को मनाई जा रही है। इस दिन नदी तट पर स्नान और दान करने का विशेष महत्व है। इस दिन शुभ मुहूर्त में पूजन करने से धन लाभ तथा कार्यों में सफलता मिलती है। इस अमावस्या का धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्व बताया गया है।

माघी मौनी अमावस्या के दिन प्रात:काल स्नान के पश्चात सूर्यदेव को तिलयुक्त जल अर्पित करने तथा पितृ तर्पण करने से धन-धान्य की प्राप्ति तथा आर्थिक स्थिति मजबूत होती है।

 माघ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मौनी अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन प्रयागराज और हरिद्वार में स्नान करने का विशेष महत्व धार्मिक ग्रंथों में माना गया है।

 धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, माघी अमावस्या के दिन देवी-देवता स्वर्गलोक से आकर गंगा में वास करते हैं। इसी कारण अमावस्या पर गंगा स्नान करने से अज्ञात पाप मिट जाते हैं और जीवन के तमाम कष्ट दूर होते हैं।

 इस दिन मौन व्रत रखने से आध्यात्मिक ऊर्जा और शक्ति में वृद्धि होकर जीवन में स्थिरता आती है। इस दिन उपवास रखने से भगवान शिव और पार्वती का पूजन करने से सुहाग की आयु लंबी होकर सौभाग्य प्राप्त होता है। दांपत्य जीवन में स्नेह और सद्भाव बढ़ाने के लिए भी सुहागिनों को सोमवती अमावस्या का व्रत पूजा करना चाहिए।

 *माघी मौनी अमावस्या के दिन व्यक्ति को अपने सामर्थ्य के अनुसार दान तथा पुण्य अवश्य ही करने चाहिए। यदि कोई व्यक्ति तीर्थस्थान जाकर स्नान नहीं कर पाता हैं, तब उस व्यक्ति अपने घर में ही प्रात:काल दैनिक कर्मों से निवृत्त नहाने के पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान करना चाहिए।


 इस दिन स्नान करने तक मौन धारण करने तथा मंत्रों का जप करने से जीवन में शुभता आती है। माघी मौनी अमावस्या पर नदी गंगा स्नान के बाद दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। 


आज के दिन कंबल, काला तिल, गरम कपड़े, तेल, जूते, सफेद तिल, शकर, तिल-गुड़ के लड्‍डू आदि चीजों का दान करने से ग्रह दोषों का निवारण होकर जीवन शुभ होता है। 

यहां जानिए शुभ मुहूर्त : माघी अमावस्या पर पूजन के शुभ मुहूर्त 

माघी मौनी अमावस्या १ फरवरी २०२२, मंगलवार इस बार सोमवती व भौमवती अमावस्या का अद्भुत संयोग बन रहा है।


 यह दिन सिद्धि और साधना के दृष्‍टि बहुत खास है। इस बार माघ अमावस्या की तिथि- ३१ जनवरी दोपहर २.२० मिनट से शुरू होकर मंगलवार, १ फरवरी को ११.१८ मिनट पर माघ अमावस्या तिथि का समापन होगा।


पंचांग के अनुसार इस दिन स्नान और दान के लिए उदयातिथि मान्य होने के कारण मंगलवार को ही माघी मौनी अमावस्या का स्नान, दान और व्रत करना उचित रहेगा।


 अमावस्या पूजा का शुभ समय- १ फरवरी, मंगलवार दोपहर २ बजे तक। भक्त दोनों ही दिन अमावस्या का लाभ उठा सकते हैं।

मंगलवार को राहुकाल का समय- अपराह्न ३:०० से ४:३० बजे तक। 

31 January 2022

एक और झूठा | अनोखी कथा

अनोखी कथा

एकऔर झूठा

एक और झूठा | अनोखी कथा



अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।


डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..


बेटा!.पहले जरा बात करवा दो।


अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..


अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।


डाकिए ने अम्मा को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..


बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।


अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!


यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..


लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,.पैसे कटते हैं।


उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।


पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!


यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।


रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया..


अब क्या हुआ अम्मा?


यह सौ रुपए रख लो बेटा! 


क्यों अम्मा? उसे आश्चर्य हुआ।


हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!


अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।


वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया। 


अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।


वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..


उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।


मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ.. 


भाई साहब आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?


मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है। 


रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..


जी पूछिए भाई साहब!


भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?


मैंने क्या किया है भाई साहब? 


रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।


हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?


रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!. 


मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..


मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।


मैं समझा नहीं?


उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...


इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।


उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..


कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?


संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।


फिर क्या हुआ भाई? 


रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..


हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।


लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?


मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही। यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई।


हर महीने उससे रुपए ले अम्मा से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अजनबी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया।

30 January 2022

सप्तलोकों की स्थापना | मथुरा



 इनके समय ही ब्रजलोक में सप्त व्याहृति रूप गायत्री के सात लोकों की स्थापना हुई 

                                                       "तत्र भूरादयो लोका भुवि माथुर मंडलम्,

अत्रै व ब्रजभूमि सा यन् तत्वं सुगोपितम्।

तेनात्रत्रिविद्या लोका स्थिता पूर्वं न संशय।।

अर्थात इस माथुर मण्डल में भू भव स्व मह:जन तप सत्यम् सातदेवलोक प्रतिष्ठित हैं, इसी माथुर मण्डल के अन्तर्गत वह ब्रजभूमि है, जो देवों के गोचारण का क्षेत्र है, तथा जहाँ ब्रह्म का परमगूढ़ तत्व सुरक्षित है। इसी स्थिति के कारण प्राचीन समय से देवों के तीन लोक यहीं स्थिति रहे हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। 

इसी कारण से महर्षि वेदव्यास ने मथुरा को 

"आद्य" भगवत स्थानं यत्पुण्यं हरिमेधस: 

अर्थात मथुरा भगवान का सर्वप्रथम आद्यस्थान है, जो हरिमेधा ऋषि का पुण्य क्षेत्र है तथा 

"माथुरा परत्मानो मापुरा: परमाशिष:"

 अर्थात माथुर ब्राह्माण ही परमात्मा हैं और इनका आशीर्वाद ही परम सिद्धिप्रद फल देने वाला है। ऐसा दृढ़ता और विश्वास के साथ प्रतिपादित किया है। गायत्री गोप कन्या का लोक ब्रज का गांठौली बन तथा मार्तण्ड सूर्य का लोक टौड़घनौ वन है।

श्रीमद् भगवद्गीता को पढें ,समझें और जीवन सवारें

 


जो पुस्तक जितनी ज्ञान से भरी होती है उसके विषय में लोगों की उतनी ही अलग अलग धारणाएं होती हैं. लोग उसकी उतनी ही अधिक आलोचना करते हैं. यह सब उसके विस्तार का प्रतीक है. यह प्रतीक है कि अधिक लोग इसे पढ रहे हैं, अधिक लोगों तक इसकी बातें फैल रही हैं .

श्री मद् भगवद् गीता के विषय में भी यही बात है .कभी बौद्ध मत के अनुयायियों ने इसका विरोध किया तो कभी इस्लाम के मानने वालों ने कहा कृष्ण तेरी गीता जलानी पडेगी या आजकल रुस में ईसाई मत के मानने वाले समय समय पर यह बात कहते हैं कि श्रीमद् भगवद् गीता के पठन -पाठन पर रोक लगनी चाहिये .वहां के लोग इसे आतंकी साहित्य के रुप मे देखते हैं . कहते हैं कि यह तो युद्ध का उन्माद पैदा करने वाला साहित्य है .



परंतु वास्तविकता तो यह है कि योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध भूमि में दिया गया यह ज्ञान ,वास्तव में सभी मनुष्यों के लिय, सम्पूर्ण मानव समाज के लिये, उनके जीवन यापन का व्यावहारिक ज्ञान है. योगेश्वर श्री कृष्ण के द्वारा बताई गई बातें यदि हम अपने जीवन में अपना लें तो व्यक्तिगत जीवन सुधर जायेगा .समाज से स्वार्थपूर्ण बुराइयां दूर हो जाऐंगी और सारा संसार विश्व- बन्धुत्व की भावना से भर जाएगा ,क्योकि श्री मद् भगवद् गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपनी शक्ति का प्रयोग सर्वभूतहितेरता की भावना से करने का उपदेश दिया है.

 


अन्य मतावलंबी श्री कृष्ण की इस निष्काम भावना से सब की भलाई करने की बात से अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगते हैं क्योकि उनकी अलगाव वादी दुकानें इससे बंद हो जाएंगी .

.ऐसे लोगों की दुकानें तो मत मतान्तरों के द्वारा मनुष्य जाति को बांटने में और आपसी युद्ध कराने में लगी रहती हैं . भलाई की भवना से लोगों में सहिष्णुता आजाएगी और उन अलगाव वादियों को हाथ पर हाथ धरे बैठना होगा, इसलिए वे लोगों को उकसाते हैं और सच्चे ज्ञान से दूर रखने की कोशिश करते हैं .


बौद्धमतावलंबियों का विचार

एक बार ऐसे ही चर्चा चल रही थी .एक बौद्ध मतावलंबी ने कहा श्री कृष्ण तो स्वयं वेदों के विरुद्ध थे, वे आपके आदर्श पुरुष कैसे हो सकते हैं उन्होंने गीता के द्वितीय अध्याय का यह श्लोक उदाहरण के रुप में कहा



त्रैगुण्यविषया हि वेदा ,निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन

निर्द्वन्द्वो,नित्यसत्वस्थो ,निर्योगक्षेम,आत्मवान् .



और कहा कि वेद तो त्रिगुणी प्रकृति के विषय को स्पष्ट करते हैं.श्रीकृष्ण वेदों के इस विषय से अर्जुन को ऊपर उठने के लिए कहते हैं .इस तरह वे वेदों का खंडन कर रहे हैं वेद कहते हैं मनुष्य को यज्ञ करना चाहिए ,यज्ञ करा कर धन वैभव ,राज्य.सुख,पुत्रादि की प्राप्ति होती है. श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम इस सब को छोड दो .यह ठीक है


 कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम वेदों के ज्ञान से ऊपर उठ कर व्यवहार करो संसार के मोह को त्यागो . इस समय तुम युद्धभूमि को छोडकर संन्यास की बात नहीं सोचो .आज तुम्हें द्वन्द्वों से ऊपर उठ कर सोचना होगा .लाभ-हानि,जीवन-मरण,सुख-दुख की चिंता से अलग हट कर कर्तव्य-कर्म करना होगा. तुम आत्मवान् बनो .आत्मा की नित्यता को पहचानो .न तुम अपने संबंधियों को मार रहे हो न ही यह सत्य है कि यदि तुम इन्हें न मारकर संन्यास ले लोगे तो ये कभी नहीं मरेंगे, अमर हो जाएंगे .बल्कि संन्यास की बात करके तुम कायर कहलाओगे .


इस समय तुम आत्मवान् बनो.स्थितप्रज्ञ होकर कर्तव्य कर्म करो .राजधर्म निभाओ .आज भी राजनीति में हमें इस राजधर्म की आवश्यकता है. भाई भतीजा वाद छोड कर हमें सत्य के मार्ग पर चलना है तभी देश सुधरेगा ,उन्नति करेगा .



आइए,हम फिर अपने मुख्य विषय की ओर लौटें ,यह

विचार करें .गीता का पठन.पाठन युद्ध उन्माद जगाता है या कर्तव्य-पथ पर चलने की प्रेरणा देता है.

हम सभी यह नियम जानते हैं कि अच्छी फसल के लिए हमें खेत के खरपतवार को जलाना होता है यह एक प्राकृतिक नियम है .समाज में सुधारलाने के लिए भी हमें बुरे विचारों को नष्ट करना होता है .


 वेद मंत्र भी इसी की पुष्टि करता है –

ओ3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुवयद् भद्रं तन्न आसुव श्री कृष्ण ने गीता में युद्ध के उन्माद को नहीं जगाया है .वे तो शान्ति पूर्वक कौरवों से राज्य का बंटवारा कराना चाहते थे और इसीलिए अंतिम उपाय के रुप में वे शान्तिदूत बन कर हस्तिनापुर गए भी थे किन्तु दुर्योधन ने जब यह कहा कि युद्ध के बिना वह सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं देगा. पाण्डवों को तब युद्ध करना आवश्यक हो गया था. ऐसे समय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था कि जय पराजय की चिन्ता छोड कर दृढ निश्चय के साथ युद्ध करो . कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए यदि युद्ध में विजयी हुए तो पृथ्वी पर राज्य करोगे, यदि युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए तो स्वर्ग का राज्य मिलेगा .इसलिए पूर्ण निश्चय के साथ कर्तव्य का पालन करो



किन्तु युद्ध करने से पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने मन के भावों को संतुलित करने की सीख देते हैं और समझाते हैं कि संतुलित रह कर ही हम जीवन की समस्याओं को सुलझा सकते हैं. खान –पान में, सोने-जागने में और हमारे सभी कामों में पूर्ण संतुलन होना चाहिए .हमें लोभ-मोह ,या काम -क्रोध को वश में रखना चाहिए. इस तरह वे बार-बार अर्जुन का उत्साह-वर्धन करते थे.

यह अवश्य है कि उन्होने कुरुक्षेत्र में हुए इस युद्ध को धर्म युद्ध कहा ,और अर्जुन को युद्ध के प्रति आशावान बनाया .अंत में यह भी कहा कि


सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज

अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच



अर्थात् सब धर्मों को छोड कर तू मेरी शरण में आ जा मैं तुझे सब पापों से मुक्त करा दूंगा ,शोक मत कर ,किन्तु यहां धर्म शब्द मत-मतान्तरो के लिये नहीं है .संस्कृत में धर्म शब्द वस्तु की पहचान करानेवाला शब्द है. जैसे अग्नि का धर्म है गर्माहट.यहां योगेश्वर श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तुम यह समझ लो कि तुम केवल शरीर ही नहीं हो ,तुम आत्मा हो जो व्यापक है और जिसका कभी भी नाश नहीं होगा .तुम अपने अविनाशी रुप को समझ कर धर्मयुद्ध करो क्योंकि यही तुम्हारा कर्तव्य है .तुम राजा हो और समाज से बुराई को उखाड फेंकना तुम्हारा धर्म भी है और तुम्हारा कर्म भी .



यह बात अर्जुन को समझ आ गई.हमें भीसमझना चाहिए .हमारे जीवन में भी इसतरह की कुरुक्षेत्र जैसी परिस्थितियां आ ही जाती हैं .हम जानें कि श्री मद् भगवद्गीता का प्रथम शब्द है धर्म और अंतिम शब्द है मम .अर्थात् यह मेरा धर्म है.हमें अत्मवान् बनना है यह आत्मरूप ही हमारी पहचान है. हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठें .जैसे आत्मा सर्व व्यापक है हम भी सर्वव्यापक बनें, सब की भलाई केलिए काम करें.


29 January 2022

उठो भाइयो बुला रहा ये धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र

"उठो भाइयो बुला रहा ये धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र सभी को "


                                             

                                        परित्राणाय साधूनां विनाशाय च  दुष्कृताम !


 योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने ये उपदेश देते हुए कहा था,कि हे पार्थ तेरा धर्म सिर्फ आजकी परिस्थिति में इतना भर है,कि तू गांडीव उठा और ये जो विपक्षी दल -सैना खड़ी है जिसकी मति और धर्म उन्हें पहले ही म्रत जानकर उनका साथ छोड़ चुके हैं उन्ह मरे जैसों को मारकर अपना धर्म निभा!
 
       अर्जुन उवाच

कैर्लिग्डैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारःकथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते। 

अर्जुन बोले--इन तीनों गुणोंसे अतीत पुरुष किन-किन लक्षणोंसे युक्त होता है और किस प्रकारके आचरणोंवाला होता है;तथा हे प्रभो!मनुष्य किस उपायसे इन तीनों गुणों से अतीत होता है? ।।21।।अध्याय 14

साथिओ ये आगामी विधानसभा चुनाव ठीक उस धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की तरह आपके सामने खड़ा है,
एक ओर वो कुरीत-अनीत-और दुराचरणी प्रवृत्ति को व धर्म विरुद्ध आचरण करने वालों की विशाल सैना है,जिसका नेतृत्व आजके वो दुर्योधन-दुशासन- कर्ण-विकर्ण आदि महावली कर रहे हैं और दूसरी ओर "धर्म"का पालन व रक्षार्थ खड़ी ये युधिष्ठिर-भीम और तू खड़ा है!

सोहे आजके तमाम मतदाताओ यानी अर्जुनों उठो और अपनीगांडीव उठाओ और संसार की सर्वश्रेष्ठ सनातन संस्कृति और हिंदुत्व की रक्षार्थ अपने मत का सदुपयोग करते हुए उस केशरिया ध्वजवाहक के पक्ष में खड़े होकर मेरा अनुसरण कर।आगे पुःन भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काड्क्षति।।

श्रीभगवान् बोले--हे अर्जुन!जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाश को *और रजोगुणके कार्यरुप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होनेपर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है।। 22।। अध्याय 14

    सो हे आजके तमाम मनुष्य रुपी अर्जुनों उठो और अपने धर्म और सनातन संस्कृति की रक्षार्थ अपने धर्म यानी "बोट रुपी "मत यानी गांडीव को उपयोगी बनायें!
   
   साथिओ इतिहास अपने को पुनः दोहरा रहा है,एकबार फिर वो दुराचरणी सोच के पोषक जो न राम को मानते हैं,और नाही योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को!तभी तो कल उन्होंने भगवान राम के अस्तित्व को ही नकार दिया था और वही सोच आज कह रही है

 कि इस "जन्मभूमि "यानी भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि के स्वरुप मंदिर को मथुरा से कहीं और लेजाओ?क्या आप उस दुराचरणी सोच को जीतते देखना चाहेंगे?जिससे फिर किसी द्रुपद सुता "द्रौपदी "का चीरहरण भरी सभा में वो दुर्योधन-दुशासन करने का दुस्साहस करें?

सत्त्वानुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोSयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

हे भारत!सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्तःकरणके अनुरुप होती है।यह पुरुष श्रद्धामय है,इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है,वह स्वयं भी वही है ।।3।। अध्याय 17.

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।

सात्त्विक पुरुष देवोंको पूजते हैं,
राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं,वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं।।4।।अध्याय 17

सो हे आजके तमाम मतदाताओं आप स्वयं भी अपने अपने मार्ग का वरण करते हुए अपना पक्ष देखें?कि किसका पक्षधर बनकर कौंन से मार्ग पर जाना चाहते हैं?

भाइयो ये आगामी विधानसभा चुनाव ठीक हमारे सामने इसी मुकाम पर आखड़ा है! कि हम कल अपनी आने वाली पीढ़ियों को  क्या देखना चाहते हैं?

 

02 January 2022

ब्राह्मण क्यों देवता | ब्राम्हण को इतना सम्मान क्यों दिया जाय या दिया जाता है


ब्राह्मण क्यों देवता 


नोट मेरे कुछ प्यारे व कुछ आदरणीय मित्रगण कभी -कभी मजाक में या कभी जिज्ञासा में, कभी गंभीरता से एक प्रश्न करते है कि ब्राम्हण को इतना सम्मान क्यों दिया जाय या दिया जाता है ?

इस तरह के बहुत सारे प्रश्न समाज के नई पिढियो के लोगो कि  भी जिज्ञासा का केंद्र बना हुवा है ।

तो आइये देखते है हमारे धर्मशास्त्र क्या कहते है इस विषय में

 शास्त्रीय मत

पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।

सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।


चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः  ।

सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया  ।।


अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।

नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।


अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है । चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है । पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए ।


देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।

ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।


अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।    


ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।

विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।


ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए। संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है। जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।


ऊँ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।

अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम्।।


जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा--

गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बताने की कृपा करें। पुलस्त्यजी ने कहा--


राजन ! इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।  तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं। ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है। संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।

वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है। ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।  पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था ब्रम्हन्!किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं ?


ब्रम्हाजी बोले--जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं। अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।  ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है। जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं,उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।


जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नही लौटता,उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है। पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है। वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।


ऊँ न विप्रपादोदककर्दमानि,

न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!

स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,

श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।

जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है। वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।

भीष्मजी!पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।  पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं। ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं। ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।  जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।

उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।

चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।

शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा।।

कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।

एहिसम विजयउपाय न दूजा।।

                                                        -- रामचरित मानस


ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,

       गोब्राम्हणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय,

        गोविन्दाय नमोनमः।।


जगत के पालनहार गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।  जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं,उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।

ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,

ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।

ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,

ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।

ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,

ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।

ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,

ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।

ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है, 

ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।

ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,

ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।

ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,

ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।

ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,

ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।

ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है, 

ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।

ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है, 

ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए बेद कीर्तिवान है

ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है, 

ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।

ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है, 

ब्राह्मण सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है..

सभी परम् ब्रह्म विप्र रूप ब्राह्मणों के चरणों में सादर समर्पित ।


 जय महाकाल 

14 June 2020

अनोखे श्लोक जिन्हें सीधा पढ़े तो रामायण और उल्टा पढ़े तो श्री कृष्ण की गाथा


क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।
जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ “राघवयादवीयम्” ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।
पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है 
“राघवयादवीयम।”
उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥
अर्थातः 
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।
विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।
राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥
विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥
विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥
कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥
विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥
रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम्
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥
विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥
यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥
विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥
मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥


विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।Y
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥


विलोमम्
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥
वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥
विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥ २१॥
विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्:
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री ।।