चतुर्वेदी समाज
भारतवर्ष विश्व का सबसे प्राचीन देश है। भारतवर्ष की सीमा वेदों, पुराणों के अनुसार ब्रह्मषि देश में सन्निहित है। ब्रह्मर्षि देश का सर्व पुरातन विश्व वन्दित सूरसेन देश, ब्रजमंडल या मथुरा मण्डल है। मथुरापुरी विश्व की सबसे प्राचीन आदिपुरी है, तथा प्रमथक्षेत्र मथुरा को स्थापित करने का श्रेय माथुर ब्राह्मणों को है। अग्नि का उत्पादन अग्नि मन्थन की विद्या मानव सभ्यता की सबसे पहली कड़ी है। वे माथुर ही थे जिन्होंने मानव के वन्य जीवन को अरणी मंथन के द्वारा अग्नि उत्पादन का महान आविष्कार किया। वेदों में अग्नि, सोम, इन्द्र के सर्वाधिक मंत्र हैं। अग्निदेव ही मानव का आदि पूर्वज ब्राह्मण माथुर संज्ञक था। माथुरों ने ही मथुरा की स्थापना की, अनेक कल्प पूर्व से माथुरों का इतिहास क्रम वेदादि शास्त्रों में वर्णित है। युग युगों मैं माथुरों की विप्र श्रेष्ठता का सन्मान प्रतिष्ठित रहा है।
अनृचो माथुरो यत्र चतुर्वेदस्तथा पर:।
चतुर्वेदं परित्यज्य माथुरं परिपूजयेत्।।
मथुराणां हि यद्रूपं तन्मेरूपं बसुन्धरे।
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजता:।।
न केशव समोदेवो न माथुर समो द्विज:।
न विश्वेश समं लिंग सत्यं सत्यं बसुन्धरे।।
माथुरा मम पूज्याहि माथुरा मम बल्लभा।
माथुरो परितुष्टे वै तुष्टो हं नात्र संशय:।।
भवतिं सर्वतौर्थानिं पुण्या न्याण्तनानि च।
मंगलानि च सर्वाणि यत्र तिष्ठन्ति माथुरा:।।
माथुरा परमात्मानो माथुरा परमा शिष:।
माथुरा मम देहावै सत्यं सत्यं बसुन्धरे।।
एकेन पूजितेन स्यान्माथुरेणाखिलंहितत्।
वेदैश्चतुर्भिंर्नैंवस्यन्माथुर ेण सम: पुमान्।।
माथुराणां तु तन्द्रुप तन्मेरूपं विहंगम।
ये पापास्तेन पश्यन्ति मद्रूपान्माथुरान्द्विजान्।।
इन वराह पुराण के प्रमाणों में माथुरों को दूसरे चारों वेद जानने वाले बाह्मणों से श्रेष्ठ कहा है। माथुरों को भगवान विष्णु ने अपना ही परम पूजनीय स्वरूप बतलाया है, एक ब्राह्मण को भोजन कराना कोटि तृप्ति के तुल्य कहा है। माथुरों को सर्व मंगल स्वरूप मानकर उनके बैठने के स्थान को भी परम पुण्यमय तीर्थ बन जाना कहा गया है। एक माथुर ब्राह्मण की पूजा से अखिल देवऋषियों एवं ब्रह्माण्ड की पूजा का पुण्य है। जो माथुरों के भगवद्रूप विग्रह को नहीं देख पाते वे निश्चय ही महापापी जीव है, ऐसा श्रेष्ठ महात्म्य माथुरों का इन पुरातन शास्त्री में हैं।बाराह यज्ञ में माथुरों की प्रशस्ति इस प्रकार है-
पूर्व काले युगे सत्ये श्रीबराह ह्यभूत्प्रभु:।
सप्तर्षिभि: सह तदा स्वयं यज्ञं चकार स:।।21।
दक्षो वशिष्ठो धूम्रश्च भार्गव: कुत्सकस्तथा।
सुश्रुवश्च भरद्वाज सर्वे धर्म विदावर:।।22।।
त एते सप्तमुनयश्चतुर्वेद परायणा:।
अतस्तेषाहि सन्तानाश्चतुर्वेंदा: प्रकीर्तिता:।।23।।
सर्व धर्म प्रणेतार: श्रौतस्मार्त मतानुगा:।
मथुरा वास करणा देव माथुर संज्ञका:।।२३।।
वराह पुराण के अन्तर्गत मथुरा माहात्म्य खण्ड में यह स्पष्ट किया गया है। एक अवसर पर इसी सतयुग काल में नारायण के वाहन गरूड़देव अपने स्वामी के दर्शनों हेतु बैकुण्ड में गये, उन्होंने वहाँ देखा लक्ष्मीपति भगवान वहाँ नहीं है। वे चिन्ता में पड़ गये और स्वर्ग आदि देवलोकों में प्रभु को खोजते फिरे, किन्तु उन्हें कहीं भी अपने स्वामी के दर्शन नहीं हुए, वे अत्यन्त व्यग्र निराश हो गये तभी उन्हें देवर्षि नारद ने संकेत दिया कि प्रभु को मथुरा में जाकर देखो। गरूड़ बड़े विस्माम भाव से मथुरा में आये और यहाँ खोज दृष्टि से देखने पर उन्हें मथुरा के प्रत्येक माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण देह के अन्तर्गत सर्वत्र अपने प्रभु नारायण के दर्शन प्राप्त हुए। ज्ञान की इस महती प्रतिष्टा और प्रभु की माथुर ब्राह्मणों पर अहेतुकी स्नेह भावना देख्कर उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि यह निर्विवाद सत्य है कि मथुरा में मेरे प्रभु अपने प्रिय वेदमूर्ति, तपोरिष्ठ, सदावारी और लोक कल्याण चिन्तक इन माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों में ही सदा सर्वदा अविछिन्न रूप से निवास करते हैं। तभी उन्होंने मुक्त कण्ठ से कहा-
"मथुरा भगवान यत्र नित्यसन्निहितो हरि:।"
इस परम्परा में माथुरा ध्रुव के गुरु नारद जी के भी जो नारायण उपासक थे, गुरुभावी रहे। प्रह्लाद , अम्बरीष, स्वायंभुव मनु, वेदव्यास, इक्ष्वाकु , श्रीलक्ष्मीदेवी सरस्वतीजी, गरूड़देव सुदर्शन परशुराम तथा अन्यान्य नारायण उपासक सम्प्रदायों के वैष्णव श्रीवैष्णव सभी के पूज्य और सम्मानित युग-युग में रहे हैं। वैष्णव आचार्य बल्लभाचार्य ने अपने यमुनाष्टक से माथुरों की माता श्री यमुना महारानी को "ध्रुव पराशराभीष्टदे" स्पष्ट रूप से कहा है
मथुरापुरी के निबासी माथुर चतुर्वेदी ब्रह्मण है इनका आदि काल से वहा का निबास होना पुरानात्र्रो से पूर्वतया होता है तथा इन लोगो की महिमा का उल्लेख अनेक पुराणो में विश्ब्द रूप से पाया जाता है इन लोगो की मनोव्रती सिद्ध करती है मुनि व्रती से हे अपना समय व्यापन किया करते थे पुरातन लोगो से इन लोगो माथुर मुनिषर, मुनीश आदि उपधि – विभूषित पाए जाते है !
जगत गुरु शंकराचार्य जी ने मथुरा आने पर इन लोगो को धर्मनिष्ठ एवं सतिय्क ब्रती में देख कर अपने लेख में इनके लिए वेद मूर्ति राज राजेशर आदि अपाधि – विव्हुशन नामोलेख के साथ इन्हें पूज्य माना हे इससे अनुमान होता है की ये माथुर चतुर्वेद किसी पुरानी मथुरा (केशव देव ) से प्रथक श्री यमुना जी के तट पर विधमान कच्चे टीले पर ( जो की आज बस्ती के रूप में आबाद होकर “चौविया पाड़े” के नाम से प्रसिद्ध है ) सामूहिक रूप में निवास करते हुए तप : स्बाध्याय में निरंतर हो समय अतिबहेत किया करते थे एबं आगंतुक यात्री तप्स्चार्य्य में निरत देख इनका अन्य वस्त्राद से सम्चर्ण किया करते थे जिसके द्र्र्रा इनकी संसार यात्रा नर्वाहित हुआ करती थी
आगन्तुक यात्रीयो का प्रेम धीरे धीरे ज्यो ज्यो बड़ता गया त्यों त्यों पारस्परिक परिचय लेख रूप में परिवर्तित होता गया जिसके परिणाम स्वरूप यजमानी पुरोहितादी व्रत्ति ने विस्तिर्त्त स्थान प्राप्त किया इस यजमानी व्रत्ति का उत्कर्ष यहा तक बड़ा कि चारो सम्रदाय के आचार्य ने मथुरा आने पर दक्ष गोत्र में स्मुप्न्य “श्री उजागर जी चोवे” के चरणकमलो का श्रधा पूर्वक समर्चन कर उन्हें मथुरा तीर्थ गुरु पद से समकरत किया और आज्ञा ग्रहण कर ब्रज परिक्रमा करने का नियम प्रतिपालन करने कि प्रथा स्थापित करदी वेदअनुसार श्री वल्लभ कुल के आचार्य वये आज भी उजागर जी के बंश का पूजन कर उनके बताये हुए नियमों का प्रति पालन करते हुए ब्रज यात्रा किया करते है इतना ही नही चोवे उजागर जी के पाद पदमो का समर्चन भारत के विशिस्ट ५२ नरेशो
ने भी किया और उन्हें मथुरा जी का तीर्थ प्रोहित माना जिसके लेख बड़े चोवे जी के यहा बिध्मान है और वे बावन राजाओं के पुरोहित कहे जाते है इस परकार प्रोहित कार्य के आग्वन से मथुरा चतुर्वेदियो का अतुलित पर्ब्हब भूतल पर व्यास हो गया परिणामसबरूप बादशाही शाशन काल में इन लोगो को जो लिखित संदेह प्राप्त हुई हे उन्हें देखने से ज्ञात हटा हे की उस समय मथुरा में इन लोगो का पूर्ण प्रभाव बिघ मान था
चतुर्वेदी पद की प्राप्ति
इसी काल में ऋषि – महा ऋषि के दुँरा वेड मंत्रो की अनेक विधि रचना हुई | मथुरो ने इसमें भुत बड़ा भाग लिया | इस समय चारो वेदों के मन्त्र और वेदाअधिकार होने के कारन इन्हें चतुर्वेदी पदवी से विभूषित किया गया, सन ८३०० वि . के भगवन विष्णु की नामावली में इन्हें विष्णु रूप मानकर, चतुरात्मा चतुरभास्य चतुर्वेदी विदेक पात अर्थात चारो वेदों की आत्मा चारो वेदों के देवभाव के ज्ञाता चारो वेदों की विधा के ज्ञान्धिकारी चतुर्भुज भगवन का स्वरूप चतुर्वेदी ही हे | इसी प्रकार मथुरो का गोरव को वेदों दुआरा भी संपुष्टि मिली हे |
चतुर्वेदी चोबे नाम से प्रसिद
इस उद्राव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता हे की १६७० वि. के पूर्व काल प्रकात भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्रमण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में ” चंड विज्ज” या ” चोबेजी ” कहे जाने लगे थे | चोबे शब्द का प्रचीन एतिहासिक य्हप्रामार्ण हे की चतुर्वेदियो का चोबेजी शंशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक हे | तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्रमानो के समस्त सामूहिक वर्ग का संबोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा हे | खासकर उस काल में जब दुसरे ब्रमण दुवे तिवाड़ी, भट् मिस्सर, पानी पांडे आदि ख्यातियो से युक्त थे तथा दिवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शखा मात्र थी | चतुर्वेदियो को निम्न प्रकार में वाट गया है यह ५ प्रकार के होते है
१. मीठी चोबे
मीठे चबे में उपभेद नही होता हे | वे सभी रचन मधुर बचन मधुर की मीठी चाशनी में पगे हे | अति मधुरता के कारण इनके ब्रज था राज स्थान के किसानो जाटो गुजरो के साथ मेना अहिरो के साथ घुलमिल जाने के कारण इनके मथुरी आचारो में काफी कमी आ गयी | ये हुक्का पने लगे ख़त पपेर बैठ कर्ट जाट गुजरो के साथ दाल रोटी खाने लगे , समय पर संस्कार यज्ञोपवित आदि से विरहित हो गये स्नानं करके भोजन करना गायत्री जप आदि कर्म उपेछित पड गये, इनता ही नही जबकि चितोड़ा भदोरिया आदि बंधुओ ने दूर से आकर मथुरा में अपने आवास पुन स्थापित किये तब इन्होने समीप हे रहते हुए भी मथुरा में अपना कोई दस बीस घरो का मोहल्ला नही बसाया | इन्होने मथुरा और मथुरास्थ बंधुओ से आत्मीय सम्बन्ध भी शिथिल कर लिए और कुछ अंशो में कुट जेसे बना लिए | इनकी यह मनोदशा और आचार स्खलन को देख कर मथुरास्थो के अनेक जानो ने दुखी होकर इनसे सम्बन्ध न्याग दिया | मथुरास्थो का इस दिशा में कोई संगठित या सुनिश्चित निर्णय नही था केवल व्यक्तिगत भावनाओ से लोगो को यह अरुचिकर बन गया |
२. कडुए चोबे
महुरास्थ मथुरो की प्रधान शाखा हे जो जो अपने मूल उत्पत्ति केंद्र मथुरा नगर में बसी हे | इसी में से समय पैर उक्त सभी शखाओ निकल कर बहार फेली हे मथुरास्थो के आचार विचारो स्वधर्म और कुल परम्परा की द्रढ़ता सभी के लिए अनुकरणीय और प्रेरणा दायक हे | अपने कठोर सयम और अविचलित भाव तथा आत्मगोरव के लिए मरमिटने की घनिष्ठता के कारण ही ये कडुए चोबे नाम से बिख्यात हुए हे |
इनका कुला चार आज भी आदर्श हे जिसकी विशेषता यह हे की
१ – ये कच्ची र्सोए किसी ब्रहामन या अन्य जाती के हाथ की ग्रहण नही करते |
2- इनके यज्ञोपवित आदि संस्कार शाश्त्रनुसार यथा समय होते हे |
३- ये हुक्का, चिलम, तमाखू , बीडी सिगरेट नही पीते मध् मांस प्याज लशुन सुल्फा गंजा अंडा केक होटल का किसी भी प्रकार का भोजन सबिकार नही करते हे |
४- ये रोटी य्ग्योपबित कंठी तिलक धारण करते, स्नान के बाद हे भोजन पते तथा यथाअवकाश गायत्री संध्या तर्पण श्रधा देवपूजन नेवेधनिवेदन देव स्तुति आदि ब्रहामन कर्मो का द्रढ़ता से पालन करते हे |
५- ये अपने को श्री यमुना माता का पुत्र मानते हे था माता जी की रक्षा क्रपा पूर्ण भरोसा रखते हे |
३. कुलीन चोबे
ये मथुरास्थी गुरुओ के आचरण को निष्ठा और श्रधा के साथ धारण करने से प्रयासी मथुरा कुल के गोरव को स्भाभी मन के साथ निर्वाह करने वाले हे | बहार बस कर अन्य सभी ब्रहामन वर्गो से अपने को उच्च आचरण युक्त वनाये रखने के कारण से अपने को कठोर श्रेष्ठ माथुर कुल धारी होने के गोरव के हेतु से कुलीन कहते हे |
४. सेगवार चोबे
सेगपुरा मथुरा से अपने प्रयाण के करण ये अपने को सेगवार या सेगर कहते थे | ” केमर पूजे सेगर
खाई ” कहाबत के आशय से ये भी सिद्ध होता हे की त्रेता दापेर युगों के समय में ये सेगर (शमीछा ब्रछ ) की फली , सेगरफरी को सुखा कर उनका आहार में पुरोडाश (हलुआ लापसी ) बनाकर प्रयोग करते थे | शमी ब्रछ को छोक कर खेजड़ी कीकर कई नाम से जाना जाता हे | महर्षि वेड व्यास के तपोवन श्म्याप्राश के मुनिजन शमी अहारी थे | राजिस्थान में त्स्य देश में केर सागरी एक बहुप्रचलित सुखाया हुआ शाख हे | खेजड़ी को आहार में प्रयुक्त करने वाले केजडीवाल छोकर कीकर भोजी काकड़ा व्यास महर्षि देश में हे |
५. बदलुआ चोबे
अपनी मध्यमवर्गीय अत्र्थिक स्थति के कारण बड़े धनि स्र्मर्ध वर्ग में बिवाह सम्बन्ध न कर पाने के कारण परस्पर में कन्या के बदले में कन्या लेने के समाजिक व्यवहार के कारण ये बदलुआ कहे गये | यह यह बदलने की प्रथा पहलवानी काल में पुत्रो की बहुब्रदी के कारण मथुरा के मथुरास्थो में भी हो गये थी |
बुद्धकाल और मथुरा चोबे ब्राह्मण
बुद्धकाल में मथुरा में वैदकि और शैव, शक्ति , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा । उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के स्तूप, विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है। मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए। नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया में था। बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था। बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समयअवन्ती के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं अवन्तीपुत्र नाम का राजा था। महाकात्यायन ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही बौद्ध बन गया। उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की उज्जयनी चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही। महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया। उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं। तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था। महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है। मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है। विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है “मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहाँ के ब्राह्मणों का केन्द्र था। यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था”इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा। मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे।
बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ। शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे। नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है। श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हज़ार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा। समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही जरासंध वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे। इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था। प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा।
प्रद्योत शुनक वंश 2011 वि0पू0 से
138 वर्ष फिर शिशुनाग वंश 1873 वि0पू0 से
363 वर्ष, फिर सहापद्मनंद वंश 1511 वि0पू0 से
88 वर्ष, फिर मौर्य वंश 1411 वि0पू0 177 वर्ष,
शुंग वंश 1274वि0पू0
106 वर्ष फिर कण्व वंश 1162 वि0पू0 से
45 वर्ष, फिर आंध्रभृत्य वंश 1119 वि0पू0 से
153 वर्ष, फिर हालेय वंश 964 वि0पू0 से
303 वर्ष फिर आंभीर वंश 661 वि0पू0 से
98 वर्ष, फिर गर्दभी (गंधारी) 563 वि0पू0 से
130 वर्ष, कंक वंशी (यूनानी डिमेट्रियस काकेशस से)
433 वि0पू0 से 144 वर्ष फिर मौनेय यवनगंधारी वंश मोअस कुषाण वंश 179 वि0पू0 से
99 वर्ष फिर भूतनंद वंगिरिवंश (शक क्षत्रप) 80 वि0पू0 से
106 वर्ष फिर मगध का पुरंजय वंश विस्फूर्जितराज 26 वि0पू0 से
7 वर्ष फिर उज्जैन का विक्रमादित्य राज्य 33 विक्रम संचत् बोतने पर भारत गंधार अरब ईरान तक का चक्रवर्ती राजा बना।
इन सभी कालों और राज्यों में मथुरा की प्रतिष्ठा महत्तापूर्ण रूप से बढ़ी , तथा मथुरा में मौर्य और गुप्त काल में अशोक की राजधानी होने तथा चंद्रगुप्त समुद्र गुप्त की सत्ता का असीम विस्तार होने और कुषाणकनिष्क का यूरोप, एशिया तथा व्यापार विस्तार होने से मथुरा और माथुरों का वैभव और मंदिरों स्तूपों बिहारो में असीम स्वर्ण रत्न संचय होने से मथुरा सोने की ,खान बन गई ।
बुद्ध के गिलगिट लेख से निम्नलिखित, बातें स्पष्ट होती हैं—
1. माथुर समस्त मथुरा और उससे दूर-दूर तक के प्रदेश के एक मात्र स्वामी थे।
2. उनके पास पर्याप्त धन दूसरे लोगों के लिये देने को थी, तभी वे 500 और 3500 बिहार यक्षों को बिना संकोच शीघ्र ही बनवा सके।
3. मथुरा का राजा अवन्ति पुत्र नाम मात्र का राजा था वह बौद्ध होते हुए भी नगर यक्षियों को बुद्ध का प्रवेश रोकने से निषेधत न कर सका ।
4. माथुरों का ही मथुरा पर सत्तात्मक प्रभाव भी था जिससे वे पूर्ण सत्कार का सामान लेकर सामूहिक रूप से बुद्ध के पास गये।
5. माथुर उदार साहसी अतिथि सत्कार परायण दयालु तथा मथुरा के उच्च महत्व की कीर्ति के लिए सब प्रकार सचेत थे।
6. उनमें स्वधर्म पर दृढता के साथधर्म की तुच्छ भेद-भाव की भावना न थी। वे किसी भी धर्म के किसी तप त्याग साधना और निष्ठा से कार्य करने वाले व्यक्ति को आदर की दृष्टि से देखते थे।
7. वे स्वयं अपने वेद पुराणोक्त सनातन धर्म पर अडिग दृढ़ निष्ठावान थे। वे बौद्ध नहीं बने भगवान तथागत को भी उनसे अपने धर्म में दीक्षित होने की बात करने का साहस नहीं हुआ। तथा वे सब जानते हुए भी उनकी प्रशस्ति समादर श्लावा करते रहे और उनकी प्रदन भिक्षा बड़े प्रेम और आदर से स्वीकार की ।
8. वे अपने मन में स्थापित मथुरा के कुत्तों, यक्षों आदि के सभी के सभी कटु अनुभवों को भूलकर माथुरों के स्नेह से बहुत समय और कई बार फिर उन मथुरा और इस भूमि का वास्तवकि आनन्द उपलब्ध किया।
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की यह एक महान चारित्रिकता और सत्य धर्म निष्ठा मानव प्रेम की विशुद्धता की अद्वितीय गरिमामयी प्रशस्ति गाथा है जिसकी दूसरी तुलना इतिहास में नहीं है।
इतिहास विमर्ष कर्ताओं का यह मत है कि मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के उदार विचारां से प्रभावित होकर बुद्ध भगवान ने वेदों ब्राह्मणों और यज्ञयगदि का खंडन त्याग किया और उनके धर्म के हीनयान महायान वज्रयानआदि तंत्र-मंत्र पूजा उत्सव शाक्त तंत्र साधना आदि के लिए समर्पित बनने लगे। तथा विरोधों को शान्त होता देखकर उनके प्रधान तथागत भगवान को विष्णु के दस अवतारों में स्थान दे दिया जो सारे भारत के धार्मिक जनों मैं निर्विरोध मान्य हो गया
मल्ल विद्या
माथुर चौबों की मल्ल श्रेष्ठता भारत प्रसिद्ध हैं । मधु कैटभ माधव केशव बलदाऊ जी भीमसेन कंसराज चांडूल मुष्टिक शल तोशल कूट आदि परम्परा प्राचीन थी, किन्तु समय की मांग के अनुसार चौवों ने औरंगजेब काल में इसको विशेष विस्तार दिया । इस काल में हरएक घर में रोगी दुर्बल को छोड़कर प्राय: सभी पुरूष पहलवान बन गयें थे । मथुरा के इन मल्ल सम्राटों ने पंजाब, दिल्ली हरियाणा महाराष्ट्र मध्य प्रदेश बिहार दक्षिण देश सभी खण्डों के नामी-नामी पहलवानों को धूल चटायी थी । इनकी संख्या हज़ारों में है, अत: सूची न देकर कुछ ख़ास-ख़ास गुरुओं के नाम ही देना पर्याप्त होगा-
अलीदत्त कुलीदत्त, रमजीलैया, हौआ चौवे, हरिगुरु, खूंगसिंह, दाऊगुरु, भंग्गाजी, उद्धवसिंह, खैला पांड़े, भगवंतचौवे, बिलासा जी, खौनाबाबा, गिल्हरगुरु, चंके बंके, खुनखुन पाई, धीरा फ़कीरा, नत्थू, पीनूरसका, बंदर सिकन्दर, जगन्नाथ उस्ताद, गलगलजी, भंवरजी, माखनजी, लछमनजी, चूंचू, गेसीलाल, देविया, महादेवा, मोथा जी, द्वारा जी, माखनजी, सिरियागुरु, जौहरी, मेघा, दंगी गुरु, मेघाजी, तपियां, खुश्याला, हिंम्मां, भौंदा, टैंउआं, गोपीनाथजी, विशनजी, बल्देवजी, विसंभरजी (सप्पे), गुलची, गुमानी, हनुमान मिश्र पिनाहट, कल्यान जोनमाने चंदपुर, कन्हईसिंह कमतरी, रौनभौंन मैंनपुरी, बेचेलाल मैंनपुरी, जै गोपाल धौलपुर आदि आदि ।
सुचना : आप अगर लेख लिखने में सक्छम है तो हमे निचे दिए गए बॉक्स में भेज सकते है हम उसे आपके नाम सहित प्रसारित करेगे कुछ लोगो के दिए हुये लेख निम्लिखित है
WE R THE MATHUR CHATURVEDI (CHAUBES- YAMUNA PUTRA)
Dear friends hear I would like to drag your kind reflection about one of the well-known chronological incident of our forefather with lord krishana along with the real face of mathur chaturvedi, please read it very carefully, and then make your prudent observations.
The name Chaube is a dialectical variant of Chaturvedi (knower of the four Vedas), a name, it is claimed, Lord Krishna himself bestowed upon this Brahman community. Today one can most easily meet Chaubes at Vishram Ghat on the banks of the river Jamuna where they wait for and administer to pilgrims taking sin-cleansing baths in the river. Their association with this river is so intimate that they call themselves sons of goddess Jamuna (Jamuna ke putra), the river itself being one form of the goddess .
Chaubes trace their origins at least as far back as the first Hindu mythological age, the Satya Yuga, when, it is said, they were born from the sweat of the god, Lord Vishnu in his incarnation as a boar . As the Chaubcs tell it, their history is filled with incidents giving evidence of, as well as providing models of and for, their mast character. For example, one day Krishna and his cowherd friends were out playing. Krishna felt hungry and sent his friends in quest of food from the Chaubes. The Chaube men, however, were busy in offering sacrifices (yajnas ) and were not to be disturbed even at Krishna’s request. When the Chaube women noticed this, they rushed out with sweets, curd, and food for Krishna and his playmates In gratitude, Krishna promised that from that time forward the Chaube women would be renowned for their fair-skinned beauty, as indeed they are, and the Chaube men would control pilgrimage in the Braj area, as they do In telling the story Chaubes gleefully point out that none but a proud Chaube would have the cheeky mast to ignore Krishna’s hunger and thirst
–Rahul chaturvedi
Chaubes (Don’t ignore it its factual)
The name Chaube is a dialectical variant of Chaturvedi (knower of the four Vedas), a name, it is claimed, Lord Krishna himself bestowed upon this Brahman community. Today one can most easily meet Chaubes at Vishram Ghat on the banks of the river Jamuna where they wait for and administer to pilgrims taking sin-cleansing baths in the river. Their association with this river is so intimate that they call themselves sons of goddess Jamuna (Jamuna ke putra), the river itself being one form of the goddess.
Chaubes trace their origins at least as far back as the first Hindu mythological age, the Satya Yuga, when, it is said, they were born from the sweat of the god, Lord Vishnu in his incarnation as a boar . As the Chaubcs tell it, their history is filled with incidents giving evidence of, as well as providing models of and for, their mast character. For example, one day Krishna and his cowherd friends were out playing. Krishna felt hungry and sent his friends in quest of food from the Chaubes. the Chaube men, however, were busy in offering sacrifices (yajnas) and were not to be disturbed even at Krishna’s request. When the Chaube women noticed this, they rushed out with sweets, curd, and food for Krishna and his playmates . In gratitude, Krishna promised that from that time forward the Chaube women would be renowned for their fair-skinned beauty, as indeed they are, and the Chaube men would control pilgrimage in the Braj area, as they do. In telling the story Chaubes gleefully point out that none but a proud Chaube would have the cheeky mast to ignore Krishna’s hunger and thirst.
–Arvind chaturvedi
C+H+A+T+U+R+V+E+D+I
Chaturvedi is a word describing a person who is proficient not only in the vedic branch into which he was born, but in all four Vedas. The word “Chaturvedi” comes from the words “chatur,” meaning four, and “vedi,” meaning one who has learned the Vedas. Becoming a Chaturvedi was considered a significant achievement, which carried with it an elevated social status. Legend holds that it takes 16 human lives for a soul to master the four Vedas, the holy books of unlimited knowledge. If one masters all the Vedas in a single human life, this superhuman achievement earns one the title of Chaturvedi.
—Shamlal chaturvedi
Talking about History of chaturvedi
Chaturvedi is an Indian family name (chatur = four, vedi = one who has learned the Vedas). A brahmin family name indicating that the title bearer’s forefathers were proficient in all of the four Vedas (including the vedic branch one is born into). This was considered a significant achievement and an elevated social status. Legend has it that it takes 16 human lives for one to master the four vedas, the holy books of unlimited knowledge. If one were to master all the vedas in one human life, that was indeed a super human achievement and therefore the title Chaturvedi.
Chaturvedis are also known as Mathur Chaturvedis. People who belonged to Mathura and know as ‘Mathura Ke Choubey’. Among the Mathura ke Choubeys, there is one classification as ‘Mithe'(sweet) and another as ‘Kadwe'(bitter). Mithe choubey belongs to the group of people who negotiated peace with the Muslim invaders and left their colonies and chose to settle down some where else, Kadwe choubeys belong to the group who did not negotiate with the Muslim rulers and chose to stay back and fight for their home land by engageing in guerrila warfare with the invadersand therefore Kadwe (bitter) Mathur Chaturvedis still have their roots in Mathura and they are all bound together by the Mathur Chaturvedi Mahasabha and usually they have get-togethers that comprise of Chaturvedis living in a particular city.
–Mohanpyare chaturvedi
बोलन्त हेला और बचलंत गारी जहा
ReplyDeleteवृक्ष हे कलिल और कूप जल खारी हे
वृक्षन पे वानर और जल माहि कछप हे
माथुर मुनीश जहा करत रखवारी हे
कहत मुकुंद जहा यमुना बहत रम्यम
माल खयवे में दक्ष सब नर नारी हे
उधो वहाँ जायेयो उन्हें राजी कर अइयो
ऐसी प्राणान् ते प्यारी पूरी मथुरा हमारी हे
हमारी चतुर्वेदिओ की देवी देवताओ से रिश्तेदारी
नाना मार्तण्डय तीनो लोको में प्रकाश करे
और मामा धर्मराज जग शासनादिकारी हे
मौसी भागीरथी सो अधम उधारिणी हे
ननिहाल उत्तर हिमाचल सुख कारी हे
कहत मुकुंद शशि वदन गणेश शीश
वरुण कुबेर इंद्र देव हु सो यारी हे
माल के खवैया पूरी मथुरा के वासी हम
और माथुर मुनीश मात यमुना हमारी हे
श्री गोपाल जी महाराज की जय
जय बिहारी जी की
जय माथुर चतुर्वेदी समाज ,जय ब्रजमडल जयबिहारी जी महाराज की
ReplyDeleteगुडवा अल्ल किस चतुर्वेदी गोत्र में है ? गुडवा की कुलदेवी कौन सी और कहाँ पर हैं ??
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