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धर्म और सम्प्रदाय का भेद: एक विमर्श
|| नमोस्तु यमुने सदा | |
पहले धर्म की बात करे। धर्म एक बहु आयामी शब्द है जिसका अर्थ प्रकरण के सन्दर्भ में ही व्यक्त किया जा सकता है। यँहा हम केवल आध्यात्म के सन्दर्भ में धर्म की चर्चा करेंगे और इसी सन्दर्भ में संप्रदाय की भी बात करेंगे।
आध्यात्मिक द्रष्टी से धर्म की बहुमान्य परिभाषा है।
"प्राणिनाम् अभ्युदय निःश्रेयस हेतुः यः स धर्म।"
प्राणी मात्र का भौतिक और आध्यात्मिक उन्नयन ही जिसका उद्देश्य हो वह धर्म है।
ऋषियो ने धर्म की यह परिभाषा संभवतः असीम अनुभव के उपरांत व्यक्त की थी। यह वह उद्देश्य है जो सतत है और सृष्टि के आदि से अंत तक व्याप्त रहेगा उपस्थित रहेगा।
अभ्युदय और निः श्रेयस के इस युग्म के निरंतैर्य् और सातत्य के आधार पर ऋषियो ने धर्म को एक शब्द में व्यक्त कर दिया "सनातन" यानि जिसका अंत न हो।
जो सदा है,शाश्वत है और सदैव रहने वाला है उसे भारत की मनीषा ने "धर्म" कहा।
मित्रो सनातन शब्द विशेषण है और नाम होने के लिए किसी शब्द का संज्ञा होना अनिवार्य है। अतः सनातन धर्म को हिन्दू धर्म का पर्याय मान लेना अतिवाद है।
समीचीन सत्य यह है कि जो भी शाश्वत है, नित्य है, सनातन है वह "धर्म" है न कि कोई सनातन नाम का धर्म है।
सम्प्रदाय एक विचार धारा है, मत है, तरीका है जो किसी आचार्य द्वारा प्रणीत है। संप्रदाय के लिए कुछ आवश्यक बाते है जैसे कि
1किसी प्रवर्तक मूल आचार्य का होना
2 आचार्य द्वारा अभिप्रेत या अभीष्ट देव का होना
3 आचार्य प्रणीत मत और पूजा पद्धति
4 संप्रदाय के सम्पूज्य ग्रन्थ। ये एकाधिक भी हो सकते है।
आदि शंकराचार्य ने दिग्विजय के बाद यह शर्त या व्यवस्था की किसी को भी नवीन संप्रदाय चलाने के लिए प्रस्थान त्रयी पर अपनी टीका लिखना आवश्यक होगा।
इस कड़ी में अंतिम आचार्य श्री बल्लभ हुए जिन्होंने प्रस्थानत्रयी पर टीका लिखी और साथ ही श्रीमद् भागवत पर भी टीका लिखी जिसका नाम "सुबोधिनी" टीका है।
श्री बल्लभाचार्य ब्रह्म सूत्र के चारो अध्यायों पर टीका न लिख सके,इनके "अणु भाष्य" को पुत्र ने पूरा किया।
सम्प्रदाय कभी भी सम्पूर्ण सत्य के पोषक नहीं हो सकते है। सभी संप्रदाय एकल मार्गीय है अतः शाश्वत या निष्पन्न सत्य अथवा सनातन नहीं हो सकते है अतः यह धर्म की मूल परिभाषा को पूर्णतः पूरा नहीं करते है।
धर्म, सत्य अथवा ब्रह्म (या कोई अन्य नाम जो आप देना चाहे) अपूर्ण नहीं हो सकते है। ये है अथवा नहीं है किन्तु अधूरे कभी नहीं है।
सम्प्रदाय प्रत्यक्षतः धर्म का प्रतिपादन करते हुए दिखते है किन्तु अगर सूक्ष्म अन्वेषण करे तब जो तथ्य है वह यह है कि सभी सम्प्रदायो ने धर्म का खण्ड किया है, धर्म को मत में परिवर्तित करने की चेष्टा की है और इस प्रकार धर्म को संकुचित किया है।
धर्म जो की मुक्ति का,मोक्ष का यानि बंधन मुक्ति का उपाय है और मनुज मात्र के लिए प्रशस्त है उस धर्म को मतों और पंथो में बाँधने का काम सम्प्रदायो ने किया है।
वैदिक समय में भी संप्रदाय थे किन्तु वह मताग्रही या मतान्धता के पोषक नहीं थे वरन् उन वैदिक सम्प्रदायो में विपरीत मत का भी आदर था, सम्मान था हठ धर्मिता नहीं थी।
मेरी नजर में वर्तमान कोई भी सम्प्रदाय सही अर्थो में धार्मिक नहीं है । ये सभी मतवाद के पोषक है जो भारतीय सनातन चिंतन में बहुत प्रशस्त नहीं रहा है।
भारत की ऋषि प्रणीत परम्परा ने मताग्रह का नहीं वरन सत्याग्रह का पक्ष लिया है।
विनोदम
Working as software Engineer
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Harshit chaturvedi