12 August 2016

नारद जी भक्तिसूत्र 48 वे सूत्र में कहा है

 नारद जी भक्तिसूत्र 48 वे सूत्र में कहा है




"य: कर्मफलं त्यजति, कर्माणि सन्यसति, ततो निर्द्वन्द्वो भवति "

यहां श्री नारद जी प्रेमी भक्तों के लक्षण बता रहे हैं!
भगवान का प्रेमी भक्त जो कुछ भी करता है, वह भगवान के लिये ही करता है!
उसकी न कर्म में आसक्ति है ना कर्म फल में ! वह तो यंत्रवत है, परंतु जहां तक उसे यह स्मरण रहता है कि मैं यंत्र हूं, तब तक वह कर्म फल का त्यागी तो होता है, कर्म  का त्यागी नही हो पाता! कर्म का त्यागी प्रेमी संत तभी होगा, जब वह अपने शरीर एवं संसार को सर्वथा विस्मृत कर जायेगा ! जगत एवं शरीर की स्मृति रहते भगवान मे पूर्ण तल्लीनता कहां हुई??

प्रेमी भक्त को जब आठो‌‌- पहर, रात-दिवस का भी ज्ञान नहीं रहता , उसके ध्यान पथ से भगवान जब एक क्षण के लिये भी नहीं हटते, उस स्थिती मे उसे पता ही नही रहता कि मैं शरीर हूं, मेरा शरीर एवं कोई संसार भी है और मुझसे कोई कर्म हो रहा है! उसके मन बुधि तो सम्पूर्णतया भगवान मे डूब जाते हैं और उस प्राकृत अहंकार के स्थान पर एक भाव जगत का भागवती, अप्राकृत अहंकार उदय हो जाता है !

उस अप्राकृत भागवती अहंकार की प्राप्ति के साथ ही उस प्रेमी भक्त का अप्राकृत भाव-जगत प्रारंभ हो जाता है,तब उस प्रेमी संत को ना तो प्राकृत जगत की स्मृति ही रहती है,एवं ना ही उसे प्राकृत काल, दिवस-रात का भान होता है!
उस स्थिति में जैसे हम पूर्वजन्म की पूर्णतया विस्मृति कर देते हैं, उस महाकृपापात्र प्रेमी भक्त की मन-बुधि इस प्राकृत माया जगत की पूर्णतया विस्मृति कर देती है! वह भगवान और भागवती लीला जगत से ऐसे एक हो जाता है, जैसे एक बूंद समुंद्र में गिरकर समुद्र से एक-मेक हो जाये ! वह नित्य भगतलीला का अप्राकृत पात्र बन जाता है

उस स्थिति का उल्लेख 48वें सूत्र मे नारद जी कर रहे है कि भगत समग्र कर्मो  का स्वरुपत: त्यागकर द्वंद्व रहित भगवान का यंत्र हो जाता है,तब उस भक्त के अंत:करण में भगवान स्वयं विराजित हुए उसके प्रारब्ध पूरे होने तक  संगोपान कर्म करने लगते हैं!!

2 comments:

  1. stendra nath chaturvedi13 August, 2016

    नारद !
    “नारदजी को अपने जमाने का समर्पित- पत्रकार या संवाददाता कहा जा सकता है । एक जनपद का दुखसुख दूसरी जगह और दूसरे जनसमुदाय के सवालों को तीसरी जगह सुनाना और उनके समाधान खोजना > जैसे उनके जीवन का एक मिशन बन गया था ।लोकमंगल की कामना से ओतप्रोत थे ।

    स्व.श्रीगोपालप्रसादव्यास ने तो बरसों तक हिन्दुस्तान- अखबार में स्तंभ लिखा था >> नारदजी खबर लाये हैं।

    भागवत में उनके कई जन्मों का उल्लेख है, इससे एक बात स्पष्ट होती है कि नारद के विराट-व्यक्तित्व में एक पूरी नारद-परंपरा की ही अन्तर्भुक्ति हुई है।

    नारायण-नारायण उनका उद्घोष है , नारायण में विष्णु-परंपरा और फिर समूची दश-अवतार तथा आगे चौबीस-अवतार की परंपराएं नारायण में अन्तर्भुक्त हैं।

    भक्तिसूत्र उनकी रचना है। ध्यान देने योग्य है कि वे ही हैं , जिनसे वाल्मीकि पूछते हैं >>> कोन्वस्मिन्सांप्रतं लोके बलवान् कश्चवीर्यवान? तब नारद ही उन्हें रामकथा का उपदेश करते हैं >> इक्ष्वाकु-वंश प्रभवो रामोनाम जनै: श्रुत:।

    और नारद ही हैं जो वेदव्यास से कहते हैं कि अवश्य ही आपने महाभारत की रचना की है किन्तु भक्ति के बिना शास्त्र अधूरा है, आप भागवत की रचना करिये ।

    नारद ही हैं जो ध्रुव को द्वादशाक्षर का उपदेश करते हैं और नारद ही हैं जो प्रह्लाद की मां कयाधु को भागवतधर्म का उपदेश करते हैं , नारद ही हैं जो कीर्तनसंगीत के प्रतिपादक हैं । लोगों को जोड देते हैं।

    नारद ही हैं जो जातिगत उच्चता या नीचता के विरुद्ध आवाज उठाते हैं ।

    भागवत में वे कहते हैं कि मेरी मां दासी थी, मेरी अवस्था पांच वर्ष की थी , तब वह अंधेरे में गाय दुहने निकली , उसका पैर सांप पर पड गया , और सर्पदंश से वह मर गयी ।

    अथर्ववेद , ऐतरेय , छान्दोग्य, महाभारत, भागवत एवं अन्य अनेकानेक पुराणों में उनका चरित्र वर्णित है , इसीके साथ विभिन्न जनपदों , प्रदेशों की लोककहानियों के वे एक महत्वपूर्ण-पात्र हैं, जो जहां चाहे प्रकट हो जाते हैं और तीनों लोकों में अबाध विचरण करते रहते हैं >>नारायण -नारायण !!!!⁠⁠⁠⁠

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  2. अति उत्तम जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद एवं पालागन, किशन चंद्र चतुर्वेदी

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Harshit chaturvedi