दान देना एक कर्त्तव्य है, दायित्व है।
"इहलोक सुधारने के लिये परिश्रम और पल्लोक सुधारने के लिये दान। "
"इहलोक सुधारने के लिये परिश्रम और पल्लोक सुधारने के लिये दान। "
दान अगर उपकार या प्रत्युपकार की भावना से दिया जाय तो वह दान है ही नहीं यह तो एक पारिश्रमिक है - मैंने तुम्हारे ऊपर उपकार किया और बदले में तुम्हारा अहं खरीद लिया । यह एक लेन देन का सौदा है। अतः दान नहीं ।
दूसरा, अगर दान स्वयं की प्रतिष्ठा के लिये या आत्म विज्ञप्ति के बोध से किया जाय तो भी यह एक व्यावसायिक कारण ही है। मैंने दान दिया और मुख्य द्वार पर एक बड़ा सा शिलालेख लिखवा दिया। इस व्यवहार में और समाचार पत्र में विज्ञापन देने में क्या अंतर है?
ये दोनो ही व्यवहार दान की श्रेणी में आते ही नहीं, इसलिये इन्हें उत्तम, मध्यम या किसी और दान की श्रेणी में रखना ही अनुचित है ।
तो फिर दान क्या है?
जो जल बाढ़े नांव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यह नाविक कौ काम॥
दोऊ हाथ उलीचिये, यह नाविक कौ काम॥
जैसे नाविक जल में रहकर भी जल से आसक्त नहीं है, उसी भावना से कि यह धन मेरे पास आया है तो इसका सदुपयोग भी मेरा ही दायित्व है।
दान का बोध और कारण दोंनो ही एक कर्त्तव्य बोध के साथ होना चाहिये। वेद, पुराण, गीता और स्मृतियों में उल्लेखित चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक सनातनी (हिंदू या आर्य) को कर्तव्यों के प्रति जाग्रत रहना चाहिए ऐसा ज्ञानीजनों का कहना है। कर्तव्यों के पालन करने से चित्त और घर में शांति मिलती है। चित्त और घर में शांति मिलने से मोक्ष व समृद्धि के द्वार खुलते हैं। इन्ही श्रुति स्मृति के अनुसार प्रमुख कर्तव्य निम्न है:-
संध्योपासन,
व्रत,
तीर्थ,
उत्सव,
सेवा,
दान,
यज्ञ और
संस्कार।
संध्योपासन,
व्रत,
तीर्थ,
उत्सव,
सेवा,
दान,
यज्ञ और
संस्कार।
यहाँ हम जानते हैं दान के महत्व को।
दान का महत्व : दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है।
मनोवैज्ञानिक कारण : किसी भी वस्तु का दान करते रहने से विचार और मन में खुलापन आता है। आसक्ति (मोह) कमजोर पड़ती है, जो शरीर छुटने या मुक्त होने में जरूरी भूमिका निभाती है। हर तरह के लगाव और भाव को छोड़ने की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। दानशील व्यक्ति से किसी भी प्रकार का रोग या शोक भी नहीं चिपकता है।
बुढ़ापे में मृत्यु सरल हो, वैराग्य हो इसका यह श्रेष्ठ उपाय है और इसे पुण्य भी माना गया है।
असल में दान क्या है? मनुष्य और अन्य प्राणियों को खुशी देना। जब आप दूसरों को खुशी देते हैं, तो बदले में आपको खुशी मिलती है। खुदकी चीज़ देने के बावजूद आपको खुशी होती है, क्योंकि आपने कुछ अच्छा किया है।
किसीको शाश्वत सुख का अनुभव कब होता है? जब आप दुनिया में अपनी सबसे अधिक प्यारी चीज़ दूसरों के लिए छोड़ देंगे, तब। सांसार की वह ऐसी कौन सी चीज़ है? पैसा।लोगों को पैसों से अत्यधिक लगाव है। अतः धन को जाने दीजिए, बहा दीजिए। उसके बाद ही आपको पता चलेगा कि जितना आप जाने देंगे, उतना ही अधिक आपके पास आएगा।
दान से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है और साथ ही जाने-अनजाने में किए गए पाप कर्मों के फल भी नष्ट हो जाते हैं। शास्त्रों में दान का विशेष महत्व बताया गया है। इस पुण्य कर्म में समाज में समानता का भाव बना रहता है और जरुरतमंद व्यक्ति को भी जीवन के लिए उपयोगी चीजें प्राप्त हो पाती है।
दान यानी क्या कि देकर लो। यह जगत् प्रतिघोष स्वरूप है। इसलिए जो आप करो वैसा प्रतिघोष सुनने को मिलेगा, उसके ब्याज के साथ।दान अर्थात् बोकर काटो । देखना! दान रह न जाए । निरपेक्ष लूटाओ ।हम शुभ करें, दान दें, वह दान कैसा? जागृतिपूर्वक का कि लोगों का कल्याण हो।औैर देनेवाला हो, उसका कब कितना गुना हो जाए। पर वह कैसा? मन से देना है, वाणी से देना है, वर्तन से देना है, तो उसका फल तो इस दुनिया में क्या न कहें, वह पूछो !दान भी गुप्त रूप से । सरप्लस का ही दान । जो कमाता है, उसका धन नहीं। जो खर्चे उसका धन। इसलिए नये ओवरड्राफ्ट भेजे वे आपके। नहीं भेजे तो आप जानो।छिन जाने के लिए ही आता है। यहाँ नहीं पैठेगा तो वहाँ पैठ जाएगा। इसलिए अच्छी जगह पैठा देना। वर्ना अन्य जगह तो पैठ ही जानेवाला है। धन का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए अच्छे रास्ते नहीं गया तो उलटे रास्ते जाएगा ।
मुकेश
जय श्री कृष्ण।।
जय श्री कृष्ण।।
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Harshit chaturvedi