जोई राधा सोइ क्रष्ण हैं,
इनमेँ भेद न मान।
इक हैँ ह्लादिनी शक्ति अरु,
शक्तिमान इक जान।।
भावार्थ- श्री राधा ही का अपर अभिन्न स्वरूप श्री क्रष्ण हैं। एवं श्री क्रष्ण का ही अपर स्वरूप श्री राधा हैं। क्योकि राधा शक्ति हैं, एवं श्री क्रष्ण शक्तिमान् हैं।
व्याख्या--
अथर्ववेदीय राधाकातापनियोपनिषद् में वेद की ऋचाओं ने ब्रह्मज्ञानियों से कहा है। यथा-
ये यं राधायश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैक क्रीडनार्थं द्विधाsभूत् ।
अर्थात् श्री राधाकृष्ण के दो होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, उनके दो देह भी नहीं है। एक ही सत्ता एवं वही सत्तास्वरूप ही एक ही देह भी है। किंतु लीला के हेतु दो स्वरूप धारण किये रहते हैं।
इसी प्रकार ऋग्वेदीय राधाकोपनिषत् में भी इसी आशय से कहा है। यथा-
ये यं राधायश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनायकः क्रीडनार्थं द्विधाsभूत् ।
सनत्कुमार संहिता में भी कहा गया है। यथा-
राधिका कृष्ण रूपं च, कृष्णो राधा स्वरूपक:।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस पर विस्तृत विवेचन है। यथा -
यथा क्षीरे च धावल्यं,
दाहकता च हुताशने,
भूमौ गन्धो जले शैत्य
तथा त्वयि ममस्थिति:।
अर्थात् एक बार श्री राधाजी ने लीला में श्री कृष्ण से पूछा कि मैं तुम्हारे वियोग में कैसे जीवित रह सकूँगी। तब श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त उदहारण देकर कहा था कि वियोग तो दो तत्वों में हुआ करता है। मुझ से वियुक्त तो प्राकृत जगत् भी नहीं हो सकता। फिर हमारा तुम्हारा सम्बन्ध तौ एसो है जैसे दूध में श्वेतिमा । भला दूध की सफेदी कभी दूध से प्रथक हो सकती है? पुनः कहा कि जैसे आग में दाहकता। अर्थात् आग से कभी दाहकता पृथक नहीं हो सकती। इसी प्रकार पृथिवी से गंध, जल से शीतलता कभी वियुक्त हो सकती है ? ठीक उसी प्रकार हम दोनों एक थे। एक हैं। एक रहेंगे।
यदि कोई शंका करे दूध से श्वेतिमा पृथक् नहीं होती किंतु राधा कृष्ण तो पृथक् होते रहते हैं। इसका विज्ञानं यह है कि दूध या आग या पृथिवी या जल जड़ तत्त्व हैं। अतः पृथक् नहीं होते। जीवगण भी अणुचित् हैं किंतु राधा कृष्ण तो विभुचित् हैं। उनके पास अघटित घटना पटियसि योगमाया की शक्ति है। वह शक्ति चैतन्य है। एवं कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ है। अतः जब जैसी इच्छा करें, वैसी ही क्रिया होने लगती है। पुनः वेद का ही घोष है । यथा -
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः पतिश्च पत्नी चाभवताम् ।। ( ब्रह्दारण्य. १-४-३ )
तंत्रों में भी वेदों का ही समर्थन किया है । यथा -
एकं ज्योतिरभूद्द्वैधा राधा माधव रूपकम्। ( सम्मोहन तंत्र )
पुनः शक्तिस्वरूपा राधा जी हैं। एवं शक्तिमान् श्रीकृष्ण हैं। वेद कहते है --
तस्य शक्तयस्त्वनेकधा।
ह्लादिनी-संधिनी ज्ञानेच्छा क्रियाद्या: बहुविद्या: शक्तय:।
तास्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरङ्गभूता राधा कृष्णेन आराध्यते इति राधा कृष्णं समाराधयति सदा।
( ऋग्वेदीय राधकोपनिषद् )
विष्णु पुराण में भी (६-७-६१) , यथा-
विष्णुशक्ति: परा प्रोक्ता
क्षेत्रज्ञाख्या तथाsपरा।
अविद्या कर्मसंज्ञान्या
तृतीया शक्तिरिष्यते ।।
अर्थात् परात्पर श्रीक्रष्ण की अनन्त शक्तियॉं हैं। उनमें सर्वाधिक अन्तरंग शक्ति का नाम ह्लादिनी शक्ति है। वही श्रीराधा हैं। कोई भी शक्ति अपने शक्तिमान् से पृथक् नहीं हो सकती। वस्तुतः शक्ति एवं शक्तिमान् दो तत्त्व ही नहीं होते। चैतन्यदेव ने सनातन को विस्तार से समझाया है। यथा--
चिच्छक्ति स्वरूपशक्ति अन्तरंगा नाम।
ताहार वैभवानन्त वैकुण्ठादि धाम।।
अर्थात् माया शक्ति की परिणिति अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड हैं।जीव-शक्ति की परिणिति अनन्त जीव विशेष हैं। एवं चित् शक्ति जिसे स्वरूप शक्ति भी कहते है, उसकी परिणिति दिव्य चिन्मय अनन्त बैकुण्ठादि धाम हैं। यह चित् शक्ति चेतन है। माया-शक्ति के समान जड़ नहीं है। इस चित् या स्वरूप शक्ति या योगमाया की शक्ति में सब कुछ न करने एवं उलटा करने की भी शक्ति है।
इस चित् शक्ति के ३ भेद हैं। तथा --
सत् चित् आनन्द कृष्णेर स्वरूप, अतएव स्वरूप शक्ति हय तिनरूप।
अर्थात् यह स्वरूप शक्ति( चित्) सत्स्वरूप, चित्स्वरूप एवं आनन्द स्वरूप हो जाती है। पुनः चैतन्यदेव आगे कहते है। यथा -
आनन्दांशे ह्लादिनी सदंशे संधिनी
चिदंशे संवित् जारे ज्ञान करि मानी।
अर्थात् सा सदंश की अधिष्ठात्री शक्ति को संधिनी शक्ति एवं चिदंश की अधिष्ठात्री शक्ति को संवित् शक्ति तथा आनन्द शक्ति की अधिष्ठात्री शक्ति को ह्लादिनी शक्ति कहते हैं। इनमें सत् शक्ति द्वारा ( संधिनी द्वारा ) श्रीक्रष्ण अपनी सत्ता की रक्षा करते है। तथा संवित् शक्ति के द्वारा सदा सर्वज्ञ बने रहते हैं। एवं ह्लादिनी शक्ति के द्वारा सदा आनन्दमय रहते हैं। इतना ही नहीं वरन् इन शक
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Harshit chaturvedi