जो पुस्तक जितनी ज्ञान से भरी होती है उसके विषय में लोगों की उतनी ही अलग अलग धारणाएं होती हैं. लोग उसकी उतनी ही अधिक आलोचना करते हैं. यह सब उसके विस्तार का प्रतीक है. यह प्रतीक है कि अधिक लोग इसे पढ रहे हैं, अधिक लोगों तक इसकी बातें फैल रही हैं .
श्री मद् भगवद् गीता के विषय में भी यही बात है .कभी बौद्ध मत के अनुयायियों ने इसका विरोध किया तो कभी इस्लाम के मानने वालों ने कहा कृष्ण तेरी गीता जलानी पडेगी या आजकल रुस में ईसाई मत के मानने वाले समय समय पर यह बात कहते हैं कि श्रीमद् भगवद् गीता के पठन -पाठन पर रोक लगनी चाहिये .वहां के लोग इसे आतंकी साहित्य के रुप मे देखते हैं . कहते हैं कि यह तो युद्ध का उन्माद पैदा करने वाला साहित्य है .
परंतु वास्तविकता तो यह है कि योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध भूमि में दिया गया यह ज्ञान ,वास्तव में सभी मनुष्यों के लिय, सम्पूर्ण मानव समाज के लिये, उनके जीवन यापन का व्यावहारिक ज्ञान है. योगेश्वर श्री कृष्ण के द्वारा बताई गई बातें यदि हम अपने जीवन में अपना लें तो व्यक्तिगत जीवन सुधर जायेगा .समाज से स्वार्थपूर्ण बुराइयां दूर हो जाऐंगी और सारा संसार विश्व- बन्धुत्व की भावना से भर जाएगा ,क्योकि श्री मद् भगवद् गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपनी शक्ति का प्रयोग सर्वभूतहितेरता की भावना से करने का उपदेश दिया है.
अन्य मतावलंबी श्री कृष्ण की इस निष्काम भावना से सब की भलाई करने की बात से अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगते हैं क्योकि उनकी अलगाव वादी दुकानें इससे बंद हो जाएंगी .
.ऐसे लोगों की दुकानें तो मत मतान्तरों के द्वारा मनुष्य जाति को बांटने में और आपसी युद्ध कराने में लगी रहती हैं . भलाई की भवना से लोगों में सहिष्णुता आजाएगी और उन अलगाव वादियों को हाथ पर हाथ धरे बैठना होगा, इसलिए वे लोगों को उकसाते हैं और सच्चे ज्ञान से दूर रखने की कोशिश करते हैं .
बौद्धमतावलंबियों का विचार
एक बार ऐसे ही चर्चा चल रही थी .एक बौद्ध मतावलंबी ने कहा श्री कृष्ण तो स्वयं वेदों के विरुद्ध थे, वे आपके आदर्श पुरुष कैसे हो सकते हैं उन्होंने गीता के द्वितीय अध्याय का यह श्लोक उदाहरण के रुप में कहा
त्रैगुण्यविषया हि वेदा ,निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन
निर्द्वन्द्वो,नित्यसत्वस्थो ,निर्योगक्षेम,आत्मवान् .
और कहा कि वेद तो त्रिगुणी प्रकृति के विषय को स्पष्ट करते हैं.श्रीकृष्ण वेदों के इस विषय से अर्जुन को ऊपर उठने के लिए कहते हैं .इस तरह वे वेदों का खंडन कर रहे हैं वेद कहते हैं मनुष्य को यज्ञ करना चाहिए ,यज्ञ करा कर धन वैभव ,राज्य.सुख,पुत्रादि की प्राप्ति होती है. श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम इस सब को छोड दो .यह ठीक है
कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम वेदों के ज्ञान से ऊपर उठ कर व्यवहार करो संसार के मोह को त्यागो . इस समय तुम युद्धभूमि को छोडकर संन्यास की बात नहीं सोचो .आज तुम्हें द्वन्द्वों से ऊपर उठ कर सोचना होगा .लाभ-हानि,जीवन-मरण,सुख-दुख की चिंता से अलग हट कर कर्तव्य-कर्म करना होगा. तुम आत्मवान् बनो .आत्मा की नित्यता को पहचानो .न तुम अपने संबंधियों को मार रहे हो न ही यह सत्य है कि यदि तुम इन्हें न मारकर संन्यास ले लोगे तो ये कभी नहीं मरेंगे, अमर हो जाएंगे .बल्कि संन्यास की बात करके तुम कायर कहलाओगे .
इस समय तुम आत्मवान् बनो.स्थितप्रज्ञ होकर कर्तव्य कर्म करो .राजधर्म निभाओ .आज भी राजनीति में हमें इस राजधर्म की आवश्यकता है. भाई भतीजा वाद छोड कर हमें सत्य के मार्ग पर चलना है तभी देश सुधरेगा ,उन्नति करेगा .
आइए,हम फिर अपने मुख्य विषय की ओर लौटें ,यह
विचार करें .गीता का पठन.पाठन युद्ध उन्माद जगाता है या कर्तव्य-पथ पर चलने की प्रेरणा देता है.
हम सभी यह नियम जानते हैं कि अच्छी फसल के लिए हमें खेत के खरपतवार को जलाना होता है यह एक प्राकृतिक नियम है .समाज में सुधारलाने के लिए भी हमें बुरे विचारों को नष्ट करना होता है .
वेद मंत्र भी इसी की पुष्टि करता है –
ओ3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुवयद् भद्रं तन्न आसुव श्री कृष्ण ने गीता में युद्ध के उन्माद को नहीं जगाया है .वे तो शान्ति पूर्वक कौरवों से राज्य का बंटवारा कराना चाहते थे और इसीलिए अंतिम उपाय के रुप में वे शान्तिदूत बन कर हस्तिनापुर गए भी थे किन्तु दुर्योधन ने जब यह कहा कि युद्ध के बिना वह सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं देगा. पाण्डवों को तब युद्ध करना आवश्यक हो गया था. ऐसे समय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था कि जय पराजय की चिन्ता छोड कर दृढ निश्चय के साथ युद्ध करो . कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए यदि युद्ध में विजयी हुए तो पृथ्वी पर राज्य करोगे, यदि युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए तो स्वर्ग का राज्य मिलेगा .इसलिए पूर्ण निश्चय के साथ कर्तव्य का पालन करो
किन्तु युद्ध करने से पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने मन के भावों को संतुलित करने की सीख देते हैं और समझाते हैं कि संतुलित रह कर ही हम जीवन की समस्याओं को सुलझा सकते हैं. खान –पान में, सोने-जागने में और हमारे सभी कामों में पूर्ण संतुलन होना चाहिए .हमें लोभ-मोह ,या काम -क्रोध को वश में रखना चाहिए. इस तरह वे बार-बार अर्जुन का उत्साह-वर्धन करते थे.
यह अवश्य है कि उन्होने कुरुक्षेत्र में हुए इस युद्ध को धर्म युद्ध कहा ,और अर्जुन को युद्ध के प्रति आशावान बनाया .अंत में यह भी कहा कि
सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच
अर्थात् सब धर्मों को छोड कर तू मेरी शरण में आ जा मैं तुझे सब पापों से मुक्त करा दूंगा ,शोक मत कर ,किन्तु यहां धर्म शब्द मत-मतान्तरो के लिये नहीं है .संस्कृत में धर्म शब्द वस्तु की पहचान करानेवाला शब्द है. जैसे अग्नि का धर्म है गर्माहट.यहां योगेश्वर श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तुम यह समझ लो कि तुम केवल शरीर ही नहीं हो ,तुम आत्मा हो जो व्यापक है और जिसका कभी भी नाश नहीं होगा .तुम अपने अविनाशी रुप को समझ कर धर्मयुद्ध करो क्योंकि यही तुम्हारा कर्तव्य है .तुम राजा हो और समाज से बुराई को उखाड फेंकना तुम्हारा धर्म भी है और तुम्हारा कर्म भी .
यह बात अर्जुन को समझ आ गई.हमें भीसमझना चाहिए .हमारे जीवन में भी इसतरह की कुरुक्षेत्र जैसी परिस्थितियां आ ही जाती हैं .हम जानें कि श्री मद् भगवद्गीता का प्रथम शब्द है धर्म और अंतिम शब्द है मम .अर्थात् यह मेरा धर्म है.हमें अत्मवान् बनना है यह आत्मरूप ही हमारी पहचान है. हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठें .जैसे आत्मा सर्व व्यापक है हम भी सर्वव्यापक बनें, सब की भलाई केलिए काम करें.
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Harshit chaturvedi