10 August 2016

परम पूज्य गोस्वामी संत श्री तुलसीदास जयंती




भगवान श्रीराम जी के अनन्य भक्त और श्री रामचरित मानस जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ के रचयिता परम पूज्य गोस्वामी संत श्री तुलसीदास जी की 519वीं जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन..!

तुलसीदास जी और श्री रामचरित मानस एक दूसरे के पर्याय लगते हैं।
तुलसीदास जी का मानस केवल भगवान रामजी के चरित्र का ही वर्णन नहीं हैं अपितु मानव जीवन की आचार संहिता है।

तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरित मानस में प्रत्येक मानव को व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा मिलती है।
श्री रामचरित मानस सिर्फ एक धर्म ग्रन्थ मात्र नहीं है वरन मानस धर्मों की संकीर्ण सीमाओं से परे एक धर्म की अनुशंसा करता है और वो धर्म मानव धर्म है।

किस अवसर पर मानव को कैसा आचरण करना चाहिए, रामचरित मानस में इसका उल्लेख मिलता है

जैसे:-
माता -पिता की आज्ञा का पालन,
निम्न वर्ग के लोगों के साथ प्रेम भाव,
दूसरों के अधिकारों को सम्मान की दृष्टि से देखना,
एक राजा का प्रजा के प्रति कर्त्तव्य,
एक पत्नी का पति के प्रति कर्त्तव्य,
बुजुर्गों की राय का मह्त्व,
शत्रु के साथ व्यवहारिक नीति।
परिवार के सभी सदस्यों का मान्-सम्मान और उनके प्रति कर्तव्य।


 श्री रामचरित मानस सर्वांग सुन्दर, उत्तम काव्य लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रसों का आस्वादन करने वाला, आदर्श ग्राहस्थ जीवन आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, पातिव्रत्य धर्म, आदर्श भ्रातृ प्रेम के साथ सर्वोच्च भक्ति ज्ञान, त्याग-वैराग्य एवं सदाचार व नैतिक शिक्षा देना वाला, सभी वर्गों, सभी धर्मो के लिए आदर्श ग्रन्थ है।

 साक्षात भगवान शिव ने जिस ग्रन्थ पर अपने हस्ताक्षर सत्यं शिवं सुन्दरं लिख कर किये हों, श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित उस ग्रन्थ का वर्णन संभव नहीं है।

आज के सन्दर्भ में जँहा चारों ओर हाहाकार, भ्रष्टाचार, भीषण अशांति मची है।

संसार के बड़े-बड़े मस्तिष्क संहार के नए साधन ढूँढ रहे हैं, ऐसे में सिर्फ तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरित मानस ही प्रेम के पराशर में अग्रणी है।

वस्तुतः तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरित मानस जो शिक्षा देता है उसमें उपदेश नहीं जीवन कौ सत्य होता है।जीवन को आनन्दित करने की कला है।

स्वार्थ, अज्ञान, अहं , ईर्षा, बैर के अंधेरों में डूबती इस सदी के सामने आज गोस्वामी श्री तुलसीदास जी चिंतामणि लेकर खड़े हैं।

गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन् समूची मानव जाति को श्रीराम के आदर्शों से जोड़ दिया।

आज समूचे विश्व में श्रीराम का चरित्र उन लोगों के लिए आदर्श बन चुका है जो समाज में मर्यादित जीवन का शंखनाद करना चाहते हैं।

संवद् १५५४ को श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अवतरित गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि आज गोस्वामी जी राम भक्ति के पर्याय बन गए।

 सम्वत् १६३१ के प्रारम्भ में राम नौवमी के दिन लगभग त्रेता के रम् नौवमी जैसो ही योग हो। वा दिन ते श्री रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष , सात महीना, छब्बीस दिन में ग्रन्थ की समाप्ति हुई । १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन सातो काण्ड पुरे भये। नए 'आनन्द ही आनन्द' की शुरुआत हुई।

                                      आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्ग मस्तुलसीतरुः।
                                      कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता।।

"इस काशीरूपी 'आनन्दवन' में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसीका पौधा है। उसकी कवितारूपी मञ्जरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्रीरामरूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।"

सम्वत् १६८० श्रावण शुक्ला तृतीया शनिवार को असीघाट पर गोस्वामीजी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

गोस्वामी तुलसीदास की जय

सियावर राम चन्द्र की जय
हनुमंत लाल की जय

जय जय श्री राधे .....
आनन्द चतुर्वेदी ( नन्दा)
आनन्द ही आनन्द 

3 comments:

  1. satendra naath chaturvedi10 August, 2016

    जयते श्री यमुने।।
    जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
    नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥
    हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
    रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥
    मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
    जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥
    लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
    सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥

    अर्थ:
    सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।

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  2. Anil chaturvedi12 August, 2016

    पन्द्रह सौ चौवन बिसै कालिन्दी के तीर।
    श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरे शरीर॥

    जिन दिनों श्रीतुलसीदासजी चित्रकूट में वास कर रहे थे उन्हीं दिनों अकबर के पुत्र जहॉगीर ने श्रीरहीमजी की सम्पत्ति जब्त कर ली और उनको देश निकाला दे दिया तो श्रीरहीमजी ने चित्रकूट की तरफ प्रस्थान किया।

    श्रीतुलसीदासजी और श्रीरहीमजी में ऐसी मित्रता हो गई कि वे अक्सर श्रीतुलसीदासजी की कुटिया पर ही रहते।

    प्राय: वे श्रीकामतनाथजी की परिक्रमा भी एक साथ किया करते।

    एक दिन कहीं से एक राजा चित्रकूट आये, उन्होंने मन्दाकिनी में स्नान किया और हाथी पर बैठ कर कामदगिरि की ओर जा रहे थे।

    हाथी ने स्वभाववश अपनी सूड़ से कुछ धूल ऊपर को फेंक दी जो राजा के ऊपर भी गिरी इससे राजा को बहुत क्रोध आया।

    राजा ने आदेश दिया कि हाथी को मार डाला जाय।

    हाथी को लोहे की जंजीरों से एक बड़े पेड़ पर बांध दिया गया और उसे मारने का उपक्रम होने लगा।

    श्रीतुलसीदास जी और श्रीरहीम जी ये दोनों सन्त भी उसी रास्ते से जा रहे थे, इन्होंने सोचा कि हाथी के प्राण बचाने बचाने चाहिए।

    राजा को सुनाते हुए श्रीतुलसीदास जी ने कहा:- 'धूरि धरत निज सीस पर कहु रहीम केहि काज।'

    रहीमजी ने उत्तर दिया:- 'जेहि रज मुनि पत्नी तरी सो ढूढत गजराज।'

    सुनते ही राजा को भाव आया कि यदि ऐसी बात है तो हाथी के साथ मेरा भी उद्धार हो जायगा।

    उसने तुरन्त हाथी को न मारने का आदेश दिया हाथी की जान बच गई।

    ऐसे भक्त शिरोमणि, कविकुलभूषण, लोक नायक, कलिपावनावतार श्रीमद्गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के पावन श्रीचरणों में हम कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं।

    भारतभूमि सदैव अपने इस महान रत्न पर नाज करेगी।

    जय श्रीराम...

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Harshit chaturvedi